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________________ ११ आयोजन का प्रयोजन पहचानें तिरिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं । देवो न जानाति, कुतो मनुष्य ।। हो सकता है कि सामान्य नारियों के मायाचारी कुटिल स्वभाव को देखकर और पुरुषों के अनायास होते उत्थान-पतन को देखकर कवि ने अफसोस व्यक्त करते हुए उक्त पंक्तियाँ लिखी हों - ये पंक्तियाँ लिखते समय कवि का क्या अभिप्राय रहा होगा? उनके दृष्टिपथ में कैसी स्त्रियाँ और कैसे पुरुष रहे होंगे यह तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि स्त्री जाति कुटिलता के लिए बदनाम भी रही हैं; सामान्यतः अधिकांश नारी जाति पेट में पाप रखती हैं, छल करती हैं, वे कब क्या कर बैठें - इस बात को देवता भी नहीं जान सकते। मनुष्य तो कैसे जान सकेंगे; परन्तु समता श्री और जीवराज उन साधारण मनुष्यों में नहीं है। उन्होंने तो स्व-पर के हित में अपने जीवन को अनेक मोड़ दिए और अंत में अपने मानव जीवन को धन्य कर लिया। “जब उक्त पंक्तियों के आलोक में मैं समताश्री के चरित्र और जीवराज के भाग्य को देखता हूँ तो मुझे लगता है निश्चय ही ये पंक्तियाँ इन्हीं जैसे किन्ही महान चरित्र नायक-नायिकाओं एवं सौभाग्यशाली जीवों के संदर्भ में कहीं गईं होंगी। समता श्री के बचपन से विवाह तक की जीवन यात्रा को देखकर यह कौन कल्पना कर सकता था कि ब्याह के बाद समताश्री को कैसी-कैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा और वे किन-किन परिस्थितियों से गुजरेंगी ? तथा वे स्वयं के व्यक्तित्व का विकास किस ढंग से कैसे करेंगी ? यह सब उनके भविष्य के गर्भ में था। (45) आयोजन का प्रयोजन पहचानें ८९ अभी तक ‘भरतजी घर में ही वैरागी' की कहानी सुना करते थे परन्तु भरतजी के सामने ऐसी कोई चुनौतियाँ नहीं थीं; जैसी समताश्री के समक्ष उपस्थित हुई; परन्तु वे वस्तु स्वातंत्र्य की श्रद्धा के बल पर विषम से विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए स्वयं को संभाले रही।' यह सुखद आश्चर्यजनक बात है । यदि तत्त्वज्ञान का बल न होता, क्रमबद्ध पर्याय की श्रद्धा न होती, चार अभाव और षट्कारकों का ज्ञान न होता तो उसके जीवन के किसी भी मोड़ पर, कोई भी असंभावित दुर्घटना घट सकती थी । जीवन के किसी भी उतार-चढ़ाव में वह विचलित हो सकतीं थी; नारी के चरित्र को सर्वज्ञ के सिवाय और कौन जान सकता था, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ; क्योंकि उसे तत्वज्ञान का सम्बल था । आज हम समताश्री की तुलना पौराणिक और ऐतिहासिक नारियों से करने के लिए पीछे मुड़कर देखते हैं तो राजुल, सीता, द्रौपदी और अंजना से भी वह दो कदम आगे दिखाई देती है। यह सब उसके जीवन पर पड़े अध्यात्म का ही प्रभाव है। यदि अन्य नारियों को अपने जीवन को सार्थक करना हो तो उन्हें समताश्री के आदर्शों पर चलना ही होगा।" इसीप्रकार जब हम जीवराज के भाग्य का अवलोकन करते हैं तो उनके भाग्य ने भी अनेकों करवटें बदलीं। उनके जीवन ने यह सूक्ति सार्थक कर दी कि 'सबै दिन जात न एक समान' जीवराज यौवन के आरंभ में चारुदत्त की भाँति भटक गये थे। किसी तरह सन्मार्ग पर आये तो कुछ दिन बाद ही जब उन्हें पूरे दायें अंग में लकवा और हाथ-पैरों में कम्प रोग का भयंकर आक्रमण हुआ तो सभी ने उनके जीवन की आशा ही छोड़ दी थी; परन्तु उनके भाग्य ने पुनः करवट बदली और उनकी सती सावत्री जैसी धर्मपत्नी समताश्री अपनी अथक सेवा से अन्ततः उन्हें मौत मुँह से छुड़ाकर वापिस लाने में सफल हो ही गईं। जीवराज का कम्परोग तो ठीक हुआ ही, आवाज भी लौट आई ।
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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