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नींव का पत्थर
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मत जानो, होने वाले काम को आपके जानने की भी अपेक्षा नहीं है, वह तो अपने स्वकाल में अपनी तत्समय की योग्यता से होगा ही। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवं पूर्ण वीतरागी भगवान के प्रति आस्थावान हैं, उन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं तो आपको अज्ञानजनित पर के कर्तृत्व के भार से आज ही निर्भर हो जाना चाहिए। अन्यथा हम यह समझेंगे कि आप भगवान को ही नहीं मानते।
भगवान की दिव्यध्वनि में आया है कि- 'छह द्रव्यों के समूह का नाम विश्व है, द्रव्य को ही वस्तुत्व गुण के कारण वस्तु कहते हैं । यह सम्पूर्ण द्रव्य या वस्तुयें पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वावलंबी हैं, यद्यपि इनके प्रतिसमय होनेवाले परिणमन में अन्य द्रव्यों का निकटतम कारण-कार्य सम्बन्ध है; परन्तु परद्रव्यों के साथ मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं । अतः हमें तुम्हें पर में कहीं कुछ भी परिवर्तन नहीं करना है।
ऐसी यथार्थ श्रद्धा से हम निश्चिंत एवं पर के कर्तृत्व के भार से निर्भार हो जाते हैं और हमारा उपयोग सहज में ही दन्द - फन्द से हटकर अन्तर्मुख होने लगता है। इस उपयोग की अंतर्मुख होने की प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं। धीरे-धीरे उपयोग की अन्तर्मुखता का अर्थात् ध्यान का समय बढ़ता जाता है और एक समय यह आ जाता है कि लगातार अन्तर्मुहूर्त तक उपयोग स्वरूप में स्थिर होने पर केवलज्ञान प्रगट होकर यह आत्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है।'
वस्तुव्यवस्था के इस नियम को ही क्रमबद्धपर्याय कहते हैं। इसी क्रमबद्धपर्याय से वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त की सिद्धि हो जाती है । क्रमबद्धपर्याय का मूल आधार सर्वज्ञता है और सर्वज्ञता की स्वीकृति के बिना तो भगवान का अस्तित्व ही नहीं टिकता ।
अम्मा ने इस गंभीर और सारभूत प्रवचन को सुना तो बहुत ध्यान से; परन्तु रेगिस्तान की बरसात की भाँति उसकी भावभूमि फिर भी प्यासी रह गई । आज का समय समाप्त हो गया, अतः शेष बात कल पर छोड़नी पड़ी
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अच्छी पड़ोसिनें भी पुण्य से मिलती हैं। पड़ोसिन अम्मा के मुख से 'कलयुगी पड़ोसी धर्म' की बात सुनकर ज्योत्स्ना अचम्भे में पड़ गई। क्या ऐसा भी होता है पड़ोसिनों का व्यवहार ? यदि ऐसी बात है तब तो पड़ोसिनों के साथ भी सोच-समझकर ही व्यवहार करना पड़ेगा और उनसे सावधान भी रहना पड़ेगा, अन्यथा ये तो हमारे घर को भी पलीता दिखा देंगी और हमारे परिवार को नचाकर स्वयं तमाशा देखेंगी ।
बहत्तर वर्षीय पड़ोसिन अम्मा शुद्ध सात्त्विक आहार, विहार और नियमित दिनचर्या पालन करने से अभी भी पूर्ण स्वस्थ हैं। अभी अम्मा की पाँचों इन्द्रियाँ काम करती हैं। उसकी स्मरण शक्ति भी अच्छी है। वह नियमितरूप से प्रातः ५ बजे जागकर वैराग्य वर्द्धक बारह भावनायें, भजन और स्तुतियों का पाठ करती है। नौकर-चाकर होते हुए भी वह यथासंभव अपने नित्यकर्म के सभी काम स्वयं ही करती है।
उसका इकलौता बेटा माँ के प्रति प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की पवित्र भावना से काम करने से बहुत मना करता है और आराम करने का आग्रह करता है; इस उम्र में माँ काम करे, यह उसे अच्छा नहीं लगता, उसका वश चले तो वह माँ को पलंग से नीचे पग न रखने दे; ..... परन्तु अम्मा का कहना यह है कि बेटा ! बुढ़ापे में हड्डियाँ हिलती-डुलती रहें तो ठीक रहती हैं, अन्यथा वे जाम हो जाती हैं, जकड़ जाती हैं, अकड़ जाती हैं, इसलिए मैं तो अपनी उम्र की बहिनों को भी यही सलाह देती हूँ और मैं स्वयं भी काम के बहाने हाथ-पैर पसार लेती हूँ तथा नौकरों के भरोसे भी हमेशा पूरी तरह नहीं रहना चाहती, क्योंकि नौकर भी कभी-कभी हमारी कमजोरी और मजबूरी देखकर परेशान करने लगते हैं, नौकरों के नखरे भी तो कम नहीं होते।'