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वस्तु स्वातंत्र्य और अहिंसा
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन!।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं?।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो?|| हैं सुखी होते दुखी होते कर्म से सब जीव जब । तू कर्म दे सकता न जब सुख-दुःख दे किस भाँति तब ।। जो मरे या जो दुःखी हों वे सब करम के उदय से। 'मैं दुःखी करता-मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न हो? ।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता ही मूढमति शुभ-अशुभ का बंधन करे।।'
अतः जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को मारता हूँ, और पर जीव मुझे मारते हैं, मैं जीवों की रक्षा करता हूँ, उन्हें सुखी-दुःखी करता हूँ या वे मुझे बचाते हैं, सुखी-दुःखी करते हैं। वह मूढ़ (मोही) है, अज्ञानी है, इसके विपरीत मानने वाला ज्ञानी है।
आचार्य अमृतचंद्र ने वस्तु स्वातंत्र्य के संदर्भ में जीवों में हिंसकपना एवं अहिंसकपना सिद्ध करते हुए कलश में कहते हैं कि -
जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख सब प्राणियों के सदा ही। अपने कर्म के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख । विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है ।। इस जगत में जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख - यह सब सदैव नियम से अपने द्वारा उपार्जित कर्मोदय से होते हैं। दूसरा पुरुष दूसरे के जीवन मरण, सुख-दुःख का कर्ता हैं - यह मानना तो अज्ञान है। १. समयसार पद्यानुवाद : डॉ. भारिल्ल २. वही
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