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धन्य है वह नारी
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लिया। अब वह अपना सर्वाधिक समय भी जीवराज की सेवा सुश्रुषा के साथ-साथ ध्यान और अध्ययन - चिन्तन मनन में ही बिताने लगी।
लकवा की बीमारी में व्यक्ति अधमरा-सा हो जाता है, हाथ-पैर काम नहीं करते, हिलना-डुलना भी मुश्किल होता है; बोलने में उच्चारण सही नहीं होता। यह लम्बे समय तक चलनेवाली बीमारी है। ऐसी हालत में अच्छों-अच्छों का धैर्य टूट जाता है, रोगी की उपेक्षा होने लगती है; पर समता उन नारियों नहीं है, वह पति के लिए पूर्ण समर्पित है, उन्हें एक क्षण सूना नहीं छोड़ती, उसके इशारे पर दौड़-दौड़ कर काम करती है। धन्य है वह नारी जो दूसरों के दुःख में इसतरह साथ दे रही है।
जीवराज ने समतारानी से कहा कि "समता ! यदि सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है तो मैं दावे से यह कह सकता हूँ कि "वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त उस मोक्ष महल की नींव का मजबूत पत्थर है। जिस तरह गहरी जड़ों के बिना वटवृक्ष सहस्त्रों वर्षों तक खड़ा नहीं रह सकता, गहरी नीव के पत्थरों के ठोस आधार बिना बहु-मंजिला महल खड़ा नहीं हो सकता; उसी प्रकार वस्तु स्वातंत्र्य एवं उसके पोषक चार अभाव षटकारक, परपदार्थों का अकतृत्व का सिद्धान्त, कारण कार्य आदि की ठोस नींव के बिना मोक्ष महल खड़ा नहीं हो सकेगा। अतः इसका सर्वाधिक प्रचार-प्रसार एवं परिचय होना ही चाहिए।"
जीवराज ने इसे क्रियान्वय करने की योजना भी बनाई थी, परन्तु अनायास ही वे लकवा से पीड़ित हो जाने के कारण इस काम को नहीं कर सके। समता ने संकल्प किया कि “पतिदेव की कामना को मैं पूरा करूँगी । समतारानी ने यदि ठान लिया तो वह करके ही दिखायेगी; क्योंकि आज तक उसने जो ठाना वह करके ही दिखाया। उसका कोई काम अधूरा नहीं रहा ।