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________________ मूल में भूल के होने पर छूट ही जाता है, वह भाव केवलज्ञान में क्या सहायता कर सकता है ? इसलिए हे निमित्त ! तेरी उपर्युक्त दृष्टि से जीव तीन लोक का नाथ तो नहीं होता, किन्तु अज्ञानभाव से वह तीन लोक में परिभ्रमण करता है। तात्पर्य यह है कि तू जीव को चार गतियों में ले जाता है। उपादानदृष्टि - - इसका अर्थ है स्वाधीन स्वभाव की स्वीकृति । मैं परिपूर्ण स्वरूप हूँ, अपने पवित्र दशारूपी कार्य को बिना किसी की सहायता के मैं ही अपनी शक्ति से करता हूँ। इसप्रकार अपने स्वभाव की श्रद्धा का जो बल है, सो उपादानदृष्टि है और वह मुक्ति का उपाय है। निमित्तदृष्टि - इसका अर्थ है - अपने स्वभाव को भूलकर पर द्रव्यानुसारी भाव होते हैं ऐसा मानना। स्वाधीन आत्मा के लक्ष्य को भूलकर जो भाव होते हैं वे सब भाव पराश्रित हैं और वे पराश्रित भाव संसार के कारण हैं। साक्षात् तीर्थंकर के लक्ष्य से जो भाव होते हैं, वे भाव भी दुःखरूप और संसार के ही कारण हैं। पुण्य का राग भी पर लक्ष्य से ही होता है, इसलिए वह दुःख और संसार का ही कारण है; अतः पराधीन दुःखरूप होने से निमित्तदृष्टि त्यागने योग्य है और स्वाधीन सुखरूप होने से उपादान स्वभावदृष्टि ही अंगीकार करने योग्य है। अरे भाई ! यह तो श्री भगवान के पास से आये हुए हीरे शाण पर चढ़ते हैं। यदि किसी भी न्याय की विपरीत बात को पकड़ रखे तो संसार होता है और यदि यथार्थ संधि करके बराबर समझे तो मुक्ति होती है। अहा ! यह बात तो वीतराग भगवान ही कहते हैं। वीतराग के सेवक भी तो वीतराग ही हैं। वीतराग और वीतराग के सेवकों के अतिरिक्त यह बात करने के लिए कोई समर्थ नहीं है। त्रैकालिक स्वभाव होने पर भी यह आत्मा अनादिकाल से क्यों परिभ्रमण कर रहा है ? बात यह है कि जीव ने अनादिकाल से अपनी भूल मूल में भूल को नहीं पहचाना। बंध-मुक्त स्वयं अपने भाव से ही होता है, तथापि पर के कारण से अपने को बंधन मुक्त मानता है। अनादिकाल की यह महा विपरीत शल्य रह गई है कि पुण्य से और निमित्तों से लाभ होता है, परन्तु भाई ! आत्मा में अनादिकाल से किसप्रकार की भूल है और वह किस कारण से है यह जानकर उसे दूर किये बिना नहीं चल सकता। जीव यह मानता है कि पुण्य अच्छा है और पाप खराब, किन्तु मेरा स्वभाव अच्छा और सब विभाव खराब हैं- इसप्रकार स्वभाव-परभाव के बीच के भेद को वह नहीं जानता । वास्तव में तो पुण्य और पाप दोनों एक ही प्रकार के (विभावरूप) भाव हैं। वे दोनों आत्मा के ज्ञानानन्दस्वरूप को भूलकर निमित्त की ओर उन्मुख होनेवाले जो भाव होते हैं, उसी के प्रकार हैं। उनमें से एक भी भाव स्वभावोन्मुखी नहीं है। एक देव, शास्त्र, गुरु की ओर का शुभभाव और दूसरा स्त्री, कुटुम्ब, पैसा इत्यादि की ओर का अशुभभाव है - इन दोनों की ओर ढलते हुए भावों से अपना ज्ञानआनन्द स्वरूप भिन्न है। इसे समझे बिना अनादि का महान भूलरूप अज्ञान दूर नहीं होता। यथार्थ ज्ञान में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु निमित्त होते हैं। यदि सच्चे देव - शास्त्र - गुरु को निमित्तरूप न जाने तो अज्ञानी है और यदि यह माने कि उनसे अपने को लाभ होता है तो भी मिथ्यात्व है। कोई भी निमित्त मेरा कुछ कर देगा इसप्रकार की मान्यता महा भूल है और उसका फल दुःख ही है; इसलिए निमित्त के लक्ष्य से जीव दुःखी ही होता है, सुखी नहीं होता । इस बात को ठीक समझ लेना चाहिए कि निमित्त के लक्ष्य से दुःख है किन्तु निमित्त से दुःख नहीं है। पैसा, स्त्री इत्यादि निमित्त है, उससे जीव दुःखी नहीं, किन्तु 'यह वस्तु मेरी है, उसमें मेरा सुख है, मैं उसका कर सकता हूँ' - इसप्रकार निमित्त का आश्रय करके जीव दुःखी होते हैं। निमित्त का लक्ष्य करना, वह अपना दोष है। उपादान के लक्ष्य से परम
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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