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________________ मुल में भूल नहीं है। आत्मप्रतीति युक्त सातवें छठे गुणस्थान में आत्मानुभव में झूलते हुए मुनि के पंच महाव्रत का जो विकल्प छठे गुणस्थान में होता है; वह राग है, आस्रव है। वह आत्मा के केवलज्ञान में विघ्न करता है। निमित्त ने कहा था कि वह मोक्ष में मदद करता है; किन्तु उपादान कहता है कि वह मोक्ष में बाधक है। इन विकल्पों को तोड़कर जीव जब स्वरूप स्थिरता की श्रेणी माँडता है, तब मोक्ष होता है; किन्तु पंच महाव्रतादि को रखकर कभी भी मोक्ष नहीं होता, इसलिए हे निमित्त ! तेरे द्वारा उपादान का एक भी कार्य नहीं होता। निमित्त कहता है - कहै निमित्त जग में बड़यो, मो तैं बड़ौ न कोय । तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसाद तैं होय ।।३२।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि जगत में मैं बड़ा हूँ, मुझसे बड़ा कोई नहीं है; तीनलोक का नाथ भी मेरी कृपा से होता है। ____ नोट - सम्यग्दर्शन की भूमिका में ज्ञानी जीव के शुभ विकल्प आने पर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध होता है - इस दृष्टान्त को उपस्थित करके निमित्त अपनी बलवत्ता को प्रकट करना चाहता है। आत्मस्वभाव से अजान और राग का पक्ष करनेवाला कहता है कि भले सम्यग्दृष्टि जीव शुभराग का आदर नहीं करते, उसे अपना नहीं मानते, तथापि त्रिलोकीनाथ जो पद है, वह तो मेरी ही (निमित्त की) कृपा से मिलता है अर्थात् निमित्त की ओर लक्ष्य किए बिना तीर्थंकर गोत्र नहीं बँधता, अत: त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर देव भी मेरे ही कारण तीर्थंकर होते हैं। यह निमित्त पक्ष का तर्क है; किन्तु इसमें भारी भूल है। निमित्त की कृपा से (पर लक्षी राग से) तो जड़ परमाणुओं का बंध होता है, उनसे कहीं तीर्थंकर पद प्रकट नहीं होता। तीर्थंकर पद तो आत्मा की वीतराग मूल में भून दशा से प्रकट होता है। निमित्ताधीन पराश्रित दृष्टिवाला मानता है कि तीर्थंकर गोत्र के पुण्य परमाणुओं का बंध होने से कोई बड़प्पन है । इसप्रकार वह पुद्गल की धूली से आत्मा का बड़प्पन बतलाता है, परन्तु निमित्त की ओर के जिस भाव से तीर्थंकर नाम का कर्मरूपी जड़ परमाणुओं का बंध होता है, वह भाव बड़ा है या उपादान की ओर से जिस भाव से उस राग को दूर करके पूर्ण वीतरागता और केवलज्ञान दशा प्रकट होती है, वह भाव बड़ा है। इतना ध्यान रखना चाहिए कि तीर्थंकर नामकर्म के परमाणुओं का जो बंध होता है, वह रागभाव से होता है; परन्तु वीतरागता और केवलज्ञान कहीं उस तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के रागभाव से नहीं होता, परन्तु उस रागभाव को दूर करके स्वभाव की स्थिरता से ही त्रिलोक पूज्य अरहन्त पद प्रकट होता है, इसलिए राग बड़ा नहीं है; किन्तु राग को दूर करके पूर्ण पद को प्राप्त करके स्वरूप को प्रकट करना ही महान पद है। उपादान का उत्तर - उपादान कहै तू कहा, चहँगति में ले जाय । तो प्रसाद तैं जीव सब, दुःखी होहिं रे भाय ।।३३।। अर्थ :- उपादान कहता है कि अरे निमित्त ! तू कौन ? तू तो जीव को चारों गतियों में ले जाता है। भाई ! तेरी कृपा से सभी जीव दु:खी ही होते हैं। निमित्त यह कहता है कि मेरी कृपा से जीव त्रिलोकीनाथ होता है। उसके विरोध में उपादान कहता है कि तेरी कृपा से तो जीव संसार की चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । जिस भाव से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है, वह भाव ही संसार का कारण है। इसे ध्यान देकर बराबर समझिये । यह तनिक कठिन-सी बात है। जिस भाव से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है वह भाव विकार है, संसार है ? क्योंकि जिस भाव से नया बंध हुआ,
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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