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________________ मूल मेंभूल नहीं है, इसलिए वह नहीं जान सकता। यदि उपादान में ही जानने की शक्ति हो तो (बिल्ली इत्यादिक) अँधेरे में भी देख सकते हैं। जहाँ प्राणी की आँख ही जानने की शक्ति से युक्त है, वहाँ उसे कोई अँधेरा नहीं रोक सकता। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इत्यादि आत्मा के गुणों का चैतन्यप्रकाश किसी संयोग से प्रकट नहीं होता किन्तु आत्मस्वभाव से ही वह प्रकट होता है। जहाँ आत्मा स्वयं पुरुषार्थ के द्वारा सम्यग्दर्शनादि रूप परिणमन करता है, वहाँ उसे कोई निमित्त रोकनेवाला अथवा सहायक नहीं है। तात्पर्य यह है कि निमित्त का दूसरों पर कोई बल नहीं है। इसीप्रकार शास्त्र की सहायता से भी ज्ञान नहीं होता। समयसार शास्त्र हजारों आदमियों के पास एक-सा ही होता है। यदि शास्त्र से ज्ञान होता हो तो उन सबको एक-सा ज्ञान ही ज्ञान होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता। एक ही शास्त्र के होने पर भी कोई सीधा अर्थ समझकर मिथ्यात्व का नाश करता है और कोई विपरीत अर्थ करके उलटा मिथ्यात्व को पुष्ट करता है - ऐसी स्थिति में शास्त्र क्या करेगा ? समझ तो अपने ज्ञान में से ही निकाली जाती है। किसी शास्त्र में से ज्ञान नहीं हो सकता। मैं अपने ज्ञान के द्वारा अपने स्वतंत्र आत्मस्वभाव की पहचान करूँ तो मुझे धर्म का लाभ हो सकता है। जो किसी संयोग से लाभ मानते हैं, वे अज्ञानी हैं। अहा ! देखो तो उपादान स्वभाव की कितनी शक्ति है। कहीं भी किंचित्मात्र भी पराधीनता नहीं पुषाती । ऐसे उपादान स्वरूप को पहचानकर उसका जो आश्रय करता है, वह अल्पकाल में ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जीवों ने अनादिकाल से अपनी शक्ति की पहचान ही नहीं की, इसलिए पर की आवश्यकता को मान बैठे; इसीलिए पराधीन होकर दु:खी हो रहे हैं - यह जिसप्रकार कहा जाता है, उसीप्रकार अपने को स्वाधीन रूप में सर्वप्रथम पहचानना चाहिए - यही मुक्ति का मार्ग है। मूलमें भूल अब निमित्त तर्क उपस्थित करता हैकहै निमित्त वे जीव को, मो बिन जग के माहिं । सबै हमारे वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं ।।२८।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि मेरे बिना जगत में मात्र जीव क्या कर सकता है ? सभी मेरे वश में हैं, मेरे बिना जीव मोक्ष भी नहीं जा सकता। बिना निमित्त के जीव मुक्ति को नहीं पाता। पहले मनुष्य-शरीर का निमित्त; फिर देव, शास्त्र, गुरु का निमित्त, फिर मुनिदशा में महाव्रतादि का शुभराग का निमित्त - इसप्रकार समस्त निमित्त की परम्परा के बिना, जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। क्या बीच में व्रतादि का पुण्य आये बिना कोई जीव मुक्त हो सकता है ? कदापि नहीं। इससे सिद्ध है कि पुण्य निमित्त है और उसी के बल से जीव मुक्ति प्राप्त करता है। यह निमित्त का तर्क है। उपादान का उत्तर - उपादान कहै रे निमित्त ! ऐसे बोल न बोल। तोको तज निज भजत हैं, ते ही करें किलोल ।।२९।। अर्थ :- उपादान कहता है कि हे निमित्त ! ऐसी बात मत कर । तेरे ऊपर की दृष्टि को छोड़कर जो जीव अपना भजन करता है, वही किलोल (आनन्द) करता है। हे निमित्त ! तेरे प्रताप से जीव मुक्ति को प्राप्त करता है - इस व्यर्थ बात को रहने दे: क्योंकि शरीर.देव-शास्त्र-गुरु अथवा पंचाणुव्रत - इन सब निमित्तों के लक्ष्य से तो जीव को राग ही होता है और उससे संसार में परिभ्रमण करना होता है, किन्तु जब इन सब निमित्तों के लक्ष्य से जीव को राग होता है और उसे संसार में परिभ्रमण करना होता है, किन्तु जब इन सब निमित्तों के लक्ष्य को छोड़कर और पंच महाव्रतों के विकल्प को
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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