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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
ज्ञान वर्तता है। इसीकारण ऐसा आत्मा अपने को मोही-रागी-द्वेषी आदि मानता है और ऐसा माननेरूप परिणमन, उसको सहज हो जाता है।
उक्त चर्चा से स्पष्ट है कि भेदज्ञान के विकल्प करने से ज्ञायक में अपनत्व नहीं हो सकता और ज्ञायक में अपनत्व हुए बिना अन्य ज्ञेयों में परपना उत्पन्न नहीं हो सकता; ऐसी स्थिति में भेदज्ञान नहीं हो सकता। आत्मा का स्वरूप समझकर आत्मा के सामान्य भाव ऐसे ज्ञायक में अपनत्व स्थापन करने पर, भेदज्ञान तो सहज ही वर्तने लगता है। समयसार गाथा १५ की टीका में भी इसीप्रकार कहा है।
"इसप्रकार अनेकप्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला (विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान (आत्मद्रव्य), वह अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवों को स्वाद में आता है; किन्तु अन्य ज्ञेयाकार की संयोग रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान (आत्मद्रव्य) स्वाद में नहीं आता और परमार्थ से विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है, वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है। अलुब्ध ज्ञानियों को तो जैसे सेंधव की डली, अन्य द्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करे केवल सेंधव का ही अनुभव किये जाने पर, सर्वत: एकक्षाररक्षत्व के कारण क्षार रूप से स्वाद में आती है; उसीप्रकार आत्मा भी परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का ही अनुभव किये जाने पर, सर्वतः एक विज्ञानघनता के कारण ज्ञानरूप से स्वाद में आता है।"
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
उक्त टीका से स्पष्ट है कि ज्ञानी-अज्ञानी सबके ज्ञान में सामान्यविशेष अथवा स्व-पर सबके ज्ञेयाकार तो एक साथ रहते हैं; किन्तु ज्ञानी का एकत्व सामान्य में होने से उसका ज्ञान उस ओर झुक जाता है, उसके विपरीत ज्ञेयलुब्ध अर्थात् ज्ञेयों में स्वामित्व रखनेवाले अज्ञानी का ज्ञानविशेषों अर्थात् ज्ञेयों की ओर झुक जाता है। जिस ओर झुकता है, उसी का ज्ञान होता हुआ अनुभव-स्वाद आता है। उससमय अन्य पक्ष ज्ञान में विद्यमान रहते हुए भी सहजरूप से गौण रह जाते हैं, करना नहीं पड़ते।
उक्त चर्चा से स्पष्ट है कि जिसमें अपनत्व होता है उस ओर की रुचि होने से ज्ञान उस ओर झुका रहता है और अन्य ज्ञेय का ज्ञान हो तो उनमें परत्वबुद्धि रखने के लिए पुरुषार्थ जाग्रत रखना पड़ता है। सविकल्प दशा में ऐसी दशा वर्तने पर, उसे भेदज्ञान कहा जाता है। वास्तव में प्रज्ञाछैनी पटकने की सूक्ष्म संधि भी यही है; सामान्य-विशेष के बीच में जब प्रज्ञाछैनी पड़ती है तो ज्ञायक में अपनत्वपूर्वक ज्ञान भी निर्विकल्प होकर आत्मा का साक्षात्कार कर आत्मानन्द का आंशिक स्वाद चख लेता है। ध्यान रहे कि जिसमें स्वामित्व होता है, उसी में एकत्व-ममत्व भी होता है और उसी के परिणमन का वह कर्ता-भोक्ता भी होता है। इसप्रकार ज्ञानी का ज्ञायक में स्वामित्व होने से उसका उसी में एकत्व वर्तता है और तजन्य निर्मल पर्यायों का वह कर्ता-भोक्ता भी रहता है। अज्ञानी को ज्ञेयों एवं अज्ञानजन्य विकारी पर्यायों में एकत्व-ममत्व रहता है; इसलिए वह उनका कर्ता-भोक्ता रहता है। इसी उद्देश्य से अज्ञानी को पर का एकत्व एवं कर्तृत्व आदि छुड़ाने का उपदेश दिया जाता है।