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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
अनन्तगुणों के कार्यों को भी जानता ही है; उसके जानने की क्रिया से विकार उत्पन्न नहीं होता । विकार की उत्पादक तो श्रद्धा एवं चारित्र गुण की तत्समयवर्ती पर्याय की योग्यता है; यह उपादान की मुख्यता का कथन है। इसी को निमित्त की मुख्यता से तत्समयवर्ती कर्म का उदय निमित्तकर्ता है, ऐसा कहा जाता है; किन्तु ज्ञान को नहीं।
प्रश्न - श्रद्धा का विषय सामान्य होता है - ऐसा कहने का अभिप्राय क्या है? एवं उसकी मोक्षमार्ग में उपयोगिता क्या है?
उत्तर - प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक ही होता है। पदार्थ के अभेद पक्ष को सामान्य एवं भेदपक्ष को विशेष कहते हैं अथवा ध्रुव को सामान्य एवं पर्याय को विशेष कहते हैं। ज्ञान का विषय तो सामान्य-विशेषात्मक समग्र पदार्थ होता है। ज्ञान का स्वभाव स्व एवं पर सबको जानने का है। जब वह स्व को स्व के रूप में एवं लोकालोक को पर के रूप जानेगा तो वह स्वज्ञेय को भी सामान्य विशेषात्मक एवं परज्ञेयों को भी सामान्य-विशेषात्मक जानेगा। मोक्षार्थी का प्रयोजन तो मोक्षमार्ग प्रगट करना होता है; अतः स्व की रुचि होना स्वाभाविक है; इसलिए स्व की मुख्यता से समझेंगे जब आत्मा परपदार्थों की ओर से ज्ञान को व्यावृत्य करके, आत्मपदार्थ को ज्ञेय बनाता है तो आत्मपदार्थ भी सामान्यविशेषात्मक ही होता है। ज्ञान ने तो उस समग्र पदार्थ को आत्मा के समक्ष स्व के रूप में प्रस्तुत कर दिया; किन्तु उसमें भी गुणभेद एवं पर्याय आदि की अनेकताएँ रहती हैं; दूसरी ओर श्रद्धा का विषय अद्वैत होने के कारण उसको तो उसका विषय मात्र एक और अभेदअखण्ड होना चाहिये; इसलिये समग्र आत्मपदार्थ में श्रद्धा का विषय सामान्य ही हो सकता है, विशेष नहीं; लेकिन तत्समय वर्तनेवाला ज्ञान तो सामान्य सहित विशेष को भी जानेगा; क्योंकि
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ऐसा उसका स्वभाव है। आत्मा का जो सामान्य है, वही अभेद, नित्य एवं एक होता है, वही ध्रुव है, वही त्रिकाली ज्ञायक है और वही द्रव्यदृष्टि का विषय है। उसमें अपनत्व होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है। इसप्रकार आत्मपदार्थ के सामान्य स्वभाव में अपनत्व करने से ही मोक्षमार्ग रूपी प्रयोजन सिद्ध होता है। यही इसकी उपयोगिता है।
सामान्य में अपनत्व का लाभ प्रश्न - परिणति में इसका लाभ क्या होगा?
उत्तर - मोक्षमार्ग तो ज्ञानी की परिणति में ही प्रगट होता है इसलिये यथार्थ मार्ग अपनाने का फल तो परिणति में ही होता है। मोक्षमार्गरूपी प्रयोजन के लिए तो ज्ञान प्रत्येक समय सामान्य अर्थात् ज्ञायक को तो अपनत्वपूर्वक स्वज्ञेय के रूप में जानेगा एवं अन्य सामान्य विशेषात्मक पर पदार्थों के साथ आत्मा के विशेषों को भी परज्ञेय के रूप में जानता है। 'रुचि अनुयायीवीर्य' के अनुसार श्रद्धा के बल से अनन्त गुणों के साथ ज्ञान भी स्वज्ञेय की ओर झुकताढलता हुआ उत्पन्न होगा, स्व की ओर झुकता हुआ ज्ञान परज्ञेयों को भी परत्वपूर्वक जानता हुआ वर्तता रहता है। स्वज्ञेय ध्रुव होने से और वह ज्ञान में धारावाहिक वर्तते रहने पर भी चारित्र की निर्बलता के कारण ज्ञान परज्ञेयों की ओर भी झुक जाता है; एकमेकसा हो जाता है; लेकिन श्रद्धा की जाग्रति से उनमें एकत्व (अपनत्व) नहीं हो पाता; फलतः आत्मार्थी को न तो प्रमाद हो सकता है और न स्वच्छन्दता हो सकती है वरन् सदैव अपना प्रयोजन सिद्ध करने की जागरुकता बनी रहती है।
दूसरा लाभ यह है कि उसकी द्रव्य को अर्थात् सामान्य को