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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ माना हुआ है, उसमें ढीलापन आता है; तब क्रमशः अभ्यास से ज्ञायक अनुभव में आता है, यही है ज्ञायक को पहिचानने की विधि अज्ञानियों के द्वारा मानी हुई ध्यान आदि किसी भी विधि से ज्ञायक प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रश्न - आत्मा में तो जानन क्रिया के अतिरिक्त मिथ्या मान्यता तथा राग-द्वेष आदि के विकारीभाव भी तो हो रहे हैं; इसलिये आत्मा को ज्ञायक ही कैसे माना जावे? उत्तर - आत्मार्थी बन्धु! उक्त प्रश्न की जानकारी भी तो तुमको ज्ञान द्वारा ही प्राप्त हुई है? तभी तो तुमने प्रश्न प्रस्तुत किया है। इसीप्रकार आत्मा में ही उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के भावों की जानकारी भी तो ज्ञान द्वारा ही होती है। प्रतिसमय अनेक प्रकार के परिवर्तन भावों में होते रहते हैं, उन सबका ज्ञान, धारावाहिक वर्तने वाली जानन क्रिया में होता है उसी से वे भाव अनुभव में भी आते हैं। इसप्रकार स्पष्ट है कि आत्मा में उक्त प्रकार के बदलते हुए भावों को भी जानने वाली ज्ञान क्रिया तो धारावाहिक अनादि-अनन्त आत्मा में चलती ही रहती है। इस प्रकार की अखण्ड धारा को ही यहाँ ज्ञान की धारा के नाम से संबोधित किया है और जानन क्रिया के स्वामी ज्ञान गुण को ज्ञायक भी कहा है; किन्तु उसका तात्पर्य ध्रुव ज्ञायक नहीं है। सम्यग्दृष्टि को ज्ञायक में अपनेपन के साथ वर्तनेवाली ज्ञानधारा वह यह ज्ञानधारा नहीं है यह धारा तो निगोद से लगाकर सिद्ध भगवान् तक के प्रत्येक जीव में अखण्ड रूप से वर्तती रहती है; लेकिन इसके साथ ही वर्तनेवाली विभावभावों की धारा तो प्रत्येक क्षण बदलती हुई संसारी जीव को ही वर्तती है। संसारी जीव को वर्तनेवाली उक्त विभावभावों की धाराओं का क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ३७ कर्तृत्व के भावों का कर्म चेतना के नाम से एवं भोक्र्तृत्व भावों का कर्मफलचेतना के नाम से परिचय कराके तथा इनका अभाव करने की मुख्यता से अथवा दोनों को संयुक्त कर, एक कर्म चेतना के नाम से अथवा कर्म धारा से नाम से भी संबोधित किया है। और ज्ञानी को ज्ञायक में अपनेपन के साथ वर्तने वाली चेतना को ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानधारा कहकर परिचय कराया है। ज्ञानी की इस धारा में अनन्तगुणों का रस अर्थात् सामों का अंश रहता है, अकेले ज्ञान का नहीं । संसारी की दोनों धाराओं में से असैनी जीवों को तो कर्म फलचेतना की मुख्यता रहती है और सैनी जीवों को तो कर्मचेतना और कर्मफल चेतना दोनों ही मुख्य रहती हैं। उक्त ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना को चेतना इसलिये कहा है कि चेतन आत्मा इन धाराओं में चेतता है, चेतन की जाग्रतिचेतनता, अन्यप्रकार में नहीं होती। इनमें से अज्ञानी जीव को तो ज्ञानधारा प्रगट ही नहीं होती; मात्र कर्मधारा वर्तती है। अरंहत एवं सिद्ध भगवान् को कर्मधारा का आत्यन्तिक अभाव होकर, मात्र ज्ञानधारा ही वर्तती है; लेकिन साधक ज्ञानी जीव को ज्ञानधारा का भी आविर्भाव हो जाता है; इसलिये उसको तीनों धाराएँ गुणस्थानानुसार मुख्यता-गौणतापूर्वक वर्तती रहती हैं। फिर भी ज्ञान तो इन सब भावों को निरंतर जानता रहता है। विकारी भाव तो नवीन-नवीन उत्पन्न होते हैं और नाश होते रहते हैं। ज्ञानी तो उनका भी ज्ञायक ही रहता है। विशेष में एकत्व से विकार होता है प्रश्न - आत्मा तो ज्ञान ही करता है, तो विकार कैसे हो जाता है? उत्तर - आत्मा तो ज्ञायक ही है और वह धारावाहिक जानने
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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