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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ उत्तर - प्रज्ञारूपी छैनी भी आत्मा की पर्याय है और जिसको छैनी द्वारा छेद करके, पर के रूप में भिन्न करना है, वह भी आत्मा की पर्याय है; किन्तु जिसकी स्व के रूप में श्रद्धा करना है वह अकेला ज्ञायक है। प्रज्ञा छैनी ज्ञान की वह पर्याय है जिसको अपनत्व की रुचि का तीव्र पृष्ठबल हो; ऐसी पर्याय ही स्वानुभव करने में समर्थ होती है। अर्थात् मिथ्यात्वदशा होते हुए भी मिथ्यात्व का अभाव करने में समर्थ होती है शास्त्रीय भाषा में कहो तो वही करणलब्धि को प्राप्त हुई पर्याय है। समयसारकलश १८१ की राजमल्ल टीका में कहा है कि “प्रज्ञा अर्थात् आत्मा के शुद्ध स्वरूप अनुभव समर्थपने से परिणमा हुआ जीव का ज्ञानगुण, वही है छैनी" आगे पुनः कहते हैं कि “यहाँ भी जीव-कर्म (भावकर्म) को छेदकर दो करना है, उनको दो रूप से छेदने के लिये स्वरूप अनुभव समर्थ ज्ञानरूप छैनी है और तो दूसरा कारण न हुआ, न होगा।" इसप्रकार प्रज्ञाछैनी का स्वरूप स्पष्ट बताने के पश्चात्, जिनका छेदन करके दो के रूप में भिन्न करना है उनका स्वरूप स्पष्ट करते हैं कि “आत्मा चेतनामात्र द्रव्य, कर्म पुद्गल का पिण्ड अथवा मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति, ऐसी है उनमें दो वस्तुएँ उनको यद्यपि एक क्षेत्रावगाहरूप है, बन्धपर्यायरूप है, अशुद्धत्व विकाररूप परिणमा है; तथापि परस्पर सन्धि है निःसन्धि नहीं हुआ है, दो द्रव्यों का एक द्रव्य रूप नहीं हुआ है ऐसा है जो - प्रज्ञा छैनी के पैठने का स्थान, उसमें प्रज्ञाछैनी पैठती है, पैठी हुई छेदकर भिन्न-भिन्न करती है। कैसी है प्रज्ञाछैनी? ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर, मिथ्यात्व का नाश होने पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप में अत्यन्त पैठन समर्थ है।” आगे और भी स्पष्ट करते हैं कि "भावार्थ इस प्रकार है कि भेदविज्ञान भेदपूर्वक विकल्परूप हैं,
ग्राह्य-ग्राहक रूप हैं, शुद्ध स्वरूप के समान निर्विकल्प नहीं है; इसलिये उपायरूप हैं।" आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि वह प्रज्ञा छैनी क्या करती हैं कि “सर्वथा प्रकार जीव (चैतन्य स्वरूपी जीव) को और कर्म (भाव कर्मरूपी अशुद्धि) को जुदा जुदा करती है।" फिर कहते हैं कि किस प्रकार भिन्न करती हैं?" "स्वपरस्वरूपग्राहक ऐसा जो प्रकाश गुण उसके त्रिकालगोचरप्रवाह में जीव द्रव्य को एक वस्तुरूप - ऐसा साधती है; भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध चेतना मात्र जीव का स्वरूप है ऐसा अनुभव गोचर आता है।"
इसप्रकार उक्त टीका में उक्त प्रश्न का सर्वांगीण समाधान आ गया है। प्रज्ञारूपी छैनी आत्मा की ही ज्ञान पर्याय है और जिसमें छेद करके भिन्न करना है, वह भी आत्मा की स्व-पर प्रकाशक स्वभावी ज्ञानपर्याय है; वह स्वरूप का भी प्रकाश आत्मा में कर रही है और पर के स्वरूप का भी आत्मा में प्रकाश कर रही है; क्योंकि ज्ञानपर्याय ही ज्ञायक के आकाररूप एवं पर के आकाररूप परिणम रही है और प्रकाशत्व गुण के कारण उनका प्रकाश भी आत्मा में ही हो रहा है; इसलिये व्युत्पन्न साधक, दोनों के बीच वर्तनेवाली सूक्ष्म संधि को ढूँढ़कर उसमें ज्ञायक के प्रति प्रगट हुई तीव्ररुचि उसके बलपूर्वक ज्ञान, ज्ञायक की ओर झुक जाता - आकर्षित हो जाता है और तत्समय ही निर्विकल्प होकर अतीन्द्रियता को प्राप्त ज्ञान, अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति कर कृतकृत्य हो जाता है। इसीसमय ज्ञान की पर्याय में, स्व-पर प्रकाशकता सम्यक्पमें वर्तने लगती है, नयज्ञान भी सम्यक्ता को प्राप्त होकर भेदज्ञान सहजरूप से वर्तने लगता है। ज्ञेयों के परिणमन भी उनकी योग्यतानुसार धारावाहिक क्रमबद्ध परिणमते हुए भासने लगते हैं अर्थात् प्रतीति वर्तने लगती है। फलतः उनमें