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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
उत्पन्न करने के लिये ज्ञायक का स्वरूप समझकर, महिमा लाकर उसी में तीव्र आकर्षणों अर्थात् रुचि उत्पन्न करना, तत्पश्चात् ज्ञानी को सहज वर्तने वाली दशा प्रगट करने का अभ्यास करना चाहिये । ज्ञान के जानने की स्वाभाविक प्रक्रिया समझ कर, ज्ञेयमात्र से निरपेक्षवृत्ति उत्पन्न करना; और ज्ञायक में अपनत्व की रुचि बढ़ाना, यही उपकार है, ज्ञान के जानने की प्रक्रिया को समझने का। इसके विपरीत, ज्ञेय पदार्थ की ओर से उपयोग को हटाकर, ज्ञेयाकार अथवा ज्ञानाकार पर्याय की ओर उपयोग को एकाग्र करना; यह विपरीत मार्ग है। ज्ञायक में अपनत्व की श्रद्धा के बल से ज्ञान का उपयोग सहज रूप से ज्ञायक की ओर झुक जाता है; यही मार्ग यथार्थ है। ज्ञान को ज्ञेयों से हटाकर ज्ञेयाकार की ओर ले जाने के विकल्प तो कर्ताबुद्धि का परिचायक हैं। इसप्रकार अज्ञानी को भी जानने की प्रक्रिया को समझने से परज्ञेय से अपनत्व तोड़ना सुगम हो जाता है; भेदज्ञान करने की पद्धति का परिचय प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात् ज्ञायक में अपनत्व होते ही उक्त अभ्यास सहज वर्तने लगता है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा ज्ञानी को होती है
आत्मा के जाननस्वभाव के परिणमन का स्वरूप समझकर, जब ज्ञान में नि:शंक निर्णय किया कि ज्ञेयाकार-ज्ञानाकार तो ज्ञान के विशेष हैं, मैं तो इनसे भी भिन्न ज्ञान सामान्य अर्थात् ज्ञायक हूँऐसा निर्णय होते ही श्रद्धा उसमें अपनत्व कर लेती है और आत्मा निर्विकल्प अनुभूति का ज्ञानी हो जाता है। उक्त ज्ञानी को सविकल्पदशा में ज्ञेय तो अनेक प्रकार के ज्ञान में आते हैं; किन्तु ज्ञानी को उनका जानना परत्वबुद्धिपूर्वक रहता है, उनमें घुलामिला दिखने पर भी एकत्व नहीं होता; उसको श्रद्धा होती है कि
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ परज्ञेय पदार्थों के तो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सभी मेरे से भिन्न होने से वे सभी क्रमबद्ध अपने-अपने परिणमन में अनवरतरूप से व्यस्त हैं। उनको मेरे जानने की भी अपेक्षा नहीं है और मेरी ज्ञानपर्याय को भी उनके जानने की अपेक्षा नहीं है, मेरी ज्ञानपर्याय ही अपनी योग्यता से उनके जाननेरूप परिणमी हैं; अत: उनके परिणमन से तो मैं निरपेक्ष वर्तता हूँ मैं तो अपनी ही ज्ञानपर्याय का कर्ता हूँ। मेरे आत्मद्रव्य के परिणमन भी मेरे ज्ञान में ज्ञात होते हैं। उनके प्रदेश भी मेरे आत्मद्रव्य के प्रदेश ही हैं; किन्तु उनके परिणमन भी उनकी पर्यायगत योग्यता के अनुसार धारावाहिक क्रमबद्ध हो रहे हैं, उनका भी ज्ञान मेरी ज्ञानपर्याय की तत्समयवर्ती योग्यता का सूचक है; इसलिए मैं तो उस पर्याय का तो नहीं वरन् तत्संबंधी ज्ञान का भी कर्ता नहीं हूँ। मैं तो त्रिकाल अकर्ता अनन्तगुणों का पिण्ड ज्ञायक ही हूँ। ज्ञानी को इसप्रकार की श्रद्धा वर्तने से, परज्ञेयों से एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्वबुद्धि नहीं होती अर्थात् अनन्तानुबंधी जन्य रागादि नहीं होते।
भेदज्ञान प्रश्न - उक्त पद्धति द्वारा अपनाया गया भेदज्ञान क्या समयसार के संवर अधिकार का भेदज्ञान है?
उत्तर - संवरअधिकार ज्ञानी जीव के परिणमन को बताने वाला अधिकार है; इसलिये उसमें बताया भेदविज्ञान तो ज्ञानी जीव को ही प्रगट होता है; लेकिन ज्ञानी होने के पूर्व भी अभ्यासक्रम में भी ऐसे ही विकल्प होते हैं; लेकिन वे विकल्प सहज होते हैं, किये नहीं जाते; उनको यथार्थ भेदज्ञान मान लिया जावे तो भेदज्ञान तो नहीं होगा; अपितु मिथ्यात्व का उत्पाद होगा।
ज्ञानी का अपने ध्रुव वर्तने वाले त्रिकाली ज्ञायक में अपनापन हो जाने से, उसकी परिणति में ज्ञायक, स्व के रूप में सदैव अन्वयरूप से धारावाहिक वर्तता रहता है। ज्ञायक में अपनापन हो जाने से