________________
२०
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ "इसप्रकार अनेक प्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आने वाला (विशेष भाव रूप, भेद रूप, अनेकाकार रूप) ज्ञान, अज्ञानी व ज्ञेय लुब्ध जीवों के स्वाद में आता है; किन्तु अन्य ज्ञेयाकार की संयोग रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वाद में नहीं आता और परमार्थ से विचार किया जावे तो जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है, वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है। (लवण का दृष्टान्त) उसी प्रकार आत्मा भी परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल आत्मा का ही अनुभव किये जाने पर, सर्वतः एक विज्ञानघनता के कारण ज्ञानरूपता से स्वाद में आता है।"
उक्त कथनों का तात्पर्य यह है कि उपादानदृष्टि मोक्षमार्ग की उत्पादक है एवं निमित्ताधीन दृष्टि संसारमार्ग का सर्जन करने वाली है। उपादान अर्थात् ज्ञायक की दृष्टिपूर्वक ज्ञानाकार को जानने वाले की दृष्टि में ज्ञानपर्याय एवं ज्ञानगुण भी तिरोभूत होकर ज्ञायक की दृष्टि हो जाती है और उसी में उसका एकत्व हो जाता है। और निमित्ताधीन दृष्टिपूर्वक ज्ञेयाकार को जाननेवाले की दृष्टि में ज्ञानपर्याय भी तिरोभूत होकर ज्ञेयपदार्थ की दृष्टि हो जाती है और वह उसी में एकत्व कर लेता है । ज्ञानी का ज्ञायक में अपनत्व होता है; इसलिये उसका ज्ञान उसी की ओर झुकता हुआ उत्पन्न होता है; इसलिये उसको अनन्तानुबंधी के अभावात्मक ज्ञायक में स्वरूपाचरण संबंधी तन्मयता वर्तते हुये भी स्वरूप में स्थिरता की कमी के कारण, ज्ञेयाकार का उल्लंघन करते हुए भी सीधा ज्ञेय पदार्थों में आसक्त हो जाता है; किन्तु अपनत्व
रहित रहता है। फलतः मिथ्यात्व का उत्पादन नहीं होता। इसका श्रेय भी अकेले ज्ञायक में अपनत्व को ही है, ज्ञेयपदार्थ अथवा ज्ञेयाकार ज्ञान के निर्णय को नहीं है। ज्ञायक में अपनत्वपूर्वक जानना एकत्व नहीं होने देता।
अरहंत भगवान् का ज्ञायक में अपनापन होकर उसमें स्थिरता पूर्ण हो चुकी; अतः उनका ज्ञान भी पूर्ण होकर, ज्ञायक को पूर्ण तन्मयतापूर्वक जानता है और परज्ञेयमात्र को (लोकालोक को) सर्वथा तन्मयता रहित जानता है (देखो परमात्मप्रकाश गाथा ५ एवं ५२ की टीका) तदनुसार ही ज्ञानी भी ज्ञायक में अपनत्व होकर स्वरूपाचरण अनुसार आंशिक तन्मयतापूर्वक स्व को जानता है तदनुसार वीतरागतारूपी शुद्धि का उत्पादन करता है एवं परज्ञेयों को अपनत्व रहित तथा तीन कषाय के सद्भावात्मक अचारित्रतापूर्वक आशिकतन्मयतापूर्वक पर को भी जानता है तदनुसार रागादिरूप अशुद्धि का भी उत्पादन करता है। इसीप्रकार तारतम्यतानुसार अन्य गुणस्थानों में भी समझ लेना। वेदन तो तन्मयता के अनुसार होता है; किन्तु स्व-पर के जानने का अभाव कहीं नहीं होता। पू. श्रीकानजीस्वामी के ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव के पृष्ठ २१ पर कहा है कि "भगवान् एक समय में (स्व एवं पर को) परिपूर्ण जानते हैं और यह जीव (स्व एवं पर को) अल्प जानता है, इतना ही अन्तर है। अल्प और अधिक ऐसे भेद को गौण कर डालें तो सर्वजीवों में ज्ञान का एक ही प्रकार है।" __ तात्पर्य यह है कि स्व-पर को जानना तो ज्ञान का स्वभाव है उसका तो अभाव हो नहीं सकता; लेकिन पर को