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________________ श्री सप्तर्षि पूजन (श्री रंगलालजी कृत) स्थापना (छप्पय) प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर । तृतिय मुनि श्री निचय सर्वसुन्दर चौथो वर ।। पंचम श्री जयवान विनयलालस षष्ठम भनि । सप्तम जय मित्राख्य सर्व चारित्र-धाम गनि ।। ये सातों चारण-ऋद्धि-धर, करूँ तास पद थापना। मैं पूजूं मन-वचन-काय करि, जो सुख चाहूँ आपना ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणद्धिधरसप्तर्षीश्वराः ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणद्धिधरसप्तर्षीश्वराः ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षीश्वराः ! अत्र मम सन्निहिताः भवत भवत वषट् । (हरिगीतिका) शुभ-तीर्थ-उद्भव-जल अनूपम, मिष्ट शीतल लायकैं। भव-तृषा-कंद-निकंद-कारण, शुद्ध घट भरवायकैं ।। मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ। ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूँ ।। ॐ ह्रीं श्रीमनु-स्वरमन्व-निचय-सर्वसुन्दर-जयवान्-विनयलालस-जयमित्राख्यचारणर्द्धिधारि सप्तर्षिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द-मन्द घिसायकैं। तसु गंध प्रसरित दिग-दिगन्तर, भर कटोरी लायकैं।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। अति धवल अक्षत खण्ड-वर्जित, मिष्ट राजत भोग के। कलधौत-थारा भरत-सुन्दर, चुनित शुभ उपयोग के।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणदिधरसप्तर्षिभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। बहु-वर्ण सुवरण-सुमन आछै, अमल कमल गुलाब के। केतकी चंपा चारु मरुआ, चुने निज कर चावके ।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। १८८ 1000 जिनेन्द्र अर्चना पकवान नाना भाँति चातुर, रचित शुद्ध नये-नये। सदमिष्ट लाडू आदि भर बहु, पुरट के थारा लये ।। मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ। ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूँ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । कलधौत-दीपक जड़ित नाना, भरित गोघृत-सारसों। अतिज्वलित जग-मग ज्योति जाकी, तिमिर नाशनहारसों ।।मन्वादि.।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। दिक्-चक्र गन्धित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही। सो लाय मन-वच-काय शुद्ध, लगाय कर खेऊँ सही ।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायकैं। द्रावडी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर-भर लायकैं ।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल-गन्ध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना।। फल ललित आठौं द्रव्य-मिश्रित, अर्घ्य कीजे पावना ।।मन्वादि. ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिचारणर्द्धिधरसप्तर्षिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (घत्ता) वन्दूँ ऋषिराजा, धर्म-जहाजा, निज-पर-काजा करत भले। करुणा के धारी, गगन-विहारी दुःख-अपहारी भरम दले।। काटत जम-फन्दा, भवि-जन वृन्दा, करत अनन्दा चरणन में। जो पूर्जे ध्यावैमंगल गावै, फेर न आवै भव-वन में।। (पद्धरि छन्द) जय श्रीमनु मुनिराजा महन्त, त्रस-थावर की रक्षा करन्त । जय-मिथ्या-तम-नाशक पतंग, करुणा रस-पूरित अंग-अंग ।। जिनेन्द्र अर्चना 95
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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