SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री बाहुबली पूजन (श्री राजमलजी पवैया कृत) (वीर छन्द) जयति बाहुबलि स्वामी, जय जय करूँ वंदना बारम्बार । निज स्वरूप का आश्रय लेकर, आप हुए भवसागर पार।। हे त्रैलोक्यनाथ त्रिभुवन में, छाई महिमा अपरम्पार । सिद्धस्वपद की प्राप्ति हो गई, हुआ जगत में जय-जयकार ।। पूजन करने में आया हूँ, अष्ट द्रव्य का ले आधार । यही विनय है चारों गति के, दुःख से मेरा हो उद्धार ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । उज्ज्वल निर्मल जल प्रभु पद-पंकज में आज चढ़ाता हूँ। जन्म-मरण का नाश करूँ, आनन्दकन्द गुण गाता हूँ।। श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर, चरणों में शीश झुकाता हूँ। अविनश्वर शिवसुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। शीतल मलय सुगन्धित पावन, चन्दन भेंट चढ़ाता हूँ। भव आताप नाश हो मेरा, ध्यान आपका ध्याता हूँ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। उत्तम शुभ्र अखण्डित तन्दुल, हर्षित चरण चढ़ाता हूँ। अक्षयपद की सहज प्राप्ति हो, यही भावना भाता हूँ।।श्री.।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। काम शत्रु के कारण अपना, शील स्वभाव न पाता हूँ। काम भाव का नाश करूँ मैं, सुन्दर पुष्प चढ़ाता हूँ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 100 जिनेन्द्र अर्चना तृष्णा की भीषण ज्वाला में, प्रतिपल जलता जाता हूँ। क्षुधा-रोग से रहित बनूँ मैं, शुभ नैवेद्य चढ़ाता हूँ।। श्री बाहुबलि स्वामी प्रभुवर चरणों में शीश झुकाता हूँ। अविनश्वर शिव सुख पाने को, नाथ शरण में आता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मोह ममत्व आदि के कारण, सम्यक् मार्ग न पाता हूँ। यह मिथ्यात्व तिमिर मिट जाये, प्रभुवर दीप चढ़ाता हूँ।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। है अनादि से कर्म बन्ध दुःखमय, न पृथक् कर पाता हूँ। अष्टकर्म विध्वंस करूँ, अत एव सु-धूप चढ़ाता हूँ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । सहज भाव सम्पदा युक्त होकर, भी भव दुःख पाता हूँ। परम मोक्षफल शीघ्र मिले, उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद, बार-बार पा जाता हूँ। निज अनर्घ्यपद मिला न अब तक, इससे अर्घ्य चढ़ाता हूँ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीबाहुबलिस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (वीरछन्द) आदिनाथ सुत बाहुबलि प्रभु, मात सुनन्दा के नन्दन । चरम शरीरी कामदेव तुम, पोदनपुर पति अभिनन्दन ।। छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर, भरत चढ़े वृषभाचल पर । अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ।। मैं ही चक्री हुआ, अहं का मान धूल हो गया तभी। एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी, लिखी प्रशस्ति स्व हस्त जभी।। जिनेन्द्र अर्चना 93
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy