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________________ सुरद्रुम के सुमन सुरंग, गन्धित अलि आवै। तासों पद पूजत चंग, कामव्यथा जावै ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नैवज नाना परकार, इन्द्रिय बलकारी। सो लै पद पूजों सार, आकुलताहारी ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। तम भंजन दीप सँवार, तुम ढिग धारतु हों। मम तिमिरमोह निरवार, यह गुन धारतु हों ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। दशगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हों। मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या सेवतु हों ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। अति उत्तम फल सुमँगाय, तुम गुन गावतु हों। पूजों तन-मन हरषाय, विघन नशावतु हों ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमों। पूजों अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमों ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा । तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा। निज ध्यान विर्षे, लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये।। ॐ ह्रीं श्री पौषकृष्णकादश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। वर केवलभानु उद्योत कियो, तिहुँ लोक तणों भ्रम मेट दियो। कलि फाल्गुन सप्तमी इन्द्र जबँ, हम पूजहिं सर्व कलंक भ6।। ॐ ह्रीं श्री फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सित फाल्गुन सप्तमी मुक्त गये, गुणवन्त अनन्त अबाध भये। हरि आय जजें तित मोद धरें, हम पूजत ही सब पाप हरें।। ॐ ह्रीं श्री फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) हे मृगांक-अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार । गणधर से नहिं पार लहि, तौ को वरनत सार ।। पै तुम भगति हिये मम, प्रेरै अति उमगाय । ता” गाऊँ सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ।। (पद्धरि छन्द) जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान । जय गरभ जनम मंगल दिनन्द, भवि जीवविकाशन शर्मकन्द ।। दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय । लखि कारण है जगतै उदास, चिन्त्यो अनुप्रेक्षा सुखनिवास ।। तित लौकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग। तापै तुम चढ़ि जिन चन्दराय, ता छिनकी शोभा को कहाय ।। जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गलगुलकहार । सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्रचरण चरचैं पवित्र ।। जिनेन्द्र अर्चना/000000 पंचकल्याणक कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली। हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्मसिता।। ॐ ह्रीं श्री चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं नि. स्वाहा । कलि पौष इकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो। सुर-ईश जजें गिरशीश तबै, हम पूजत हैं नुतशीश अबै ।। ॐ ह्रीं श्री पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं नि. स्वाहा। "जिनेन्द्र अर्चना 79
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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