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(बेसरी छन्द) प्रथम सुदर्शन मेरु विराजै, भद्रशाल वन भू पर छाजै । चैत्यालय चारों सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। ऊपर पांच-शतक पर सोहै, नन्दन-वन देखत मन मोहै।
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। साढ़े बासठ सहस ऊँचाई, वन सुमनस शोभै अधिकाई।
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। ऊँचा जोजन सहस-छतीसं, पाण्डुक-वन-सोहै गिरि-सीसं। चैत्यालय चारों सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रसाल चहुँ जाने ।
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। ऊँचे पाँच शतक पर भाखै, चारों नन्दनवन अभिलाखै ।
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सौमनस चार बहुरंगा । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। उच्च अठाइस सहस बताये, पाण्डुक चारों वन शुभ गाये। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। सुर-नर-चारन वन्दन आवै, सो शोभा हम किह मुख गावें।
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन-वच-तन वन्दना हमारी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसंबंधि-अशीतिजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यो जयमालामहायं निर्वपामिति स्वाहा।
नन्दीश्वर द्वीप-पूजन (पं. द्यानतरायजी कृत)
(अडिल्ल) सरब परव में बड़ो अठाई परव है। नन्दीश्वर सुर जांहिं लेय वसु दरव है ।। हमैं सकति सो नाहिं इहाँ करि थापना ।
पूर्जे जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशि द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशि द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशि द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् ।
(अवतार) कंचन-मणि-मय गार, तीरथ-नीर भरा। तिहुँ धार दयी निरवार, जामन मरन जरा ।। नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद-भाव धरों।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशि द्विपंचाशजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
भव-तप-हर शीतल वास, सो चन्दन नाहीं।
प्रभु यह गुन कीजै साँच, आयो तुम ठाहीं ।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरै सोहै।
सब जीते अक्ष-समाज तुम-सम अरु को है।। नन्दी. ।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्विपंचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना 10000
(दोहा)
पंचमेरु की आरती, पढ़े सुनै जो कोय । 'द्यानत' फल जानै प्रभो, तुरत महासुख होय ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
10. जिनेन्द्र अर्चना
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