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________________ नेवज बहुघृत मिष्ट सों (हों) पूजों भूखविडार ।। सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह मँझार । श्रीजिनराज हो भव-तारण-तरण जिहाज ।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। उद्यम होन न देत सर्व जगमांहि भर्यो है। मोह-महातम घोर नाश परकाश को है।। पूजों दीप प्रकाश सों (हो) ज्ञान-ज्योति करतार ।। सीमं.।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। कर्म आठ सब काठ भार विस्तार निहारा। ध्यान अगनि कर प्रकट सर्व कीनो निरवारा ।। धूप अनूपम खेवतें (हो) दुःख जलैं निरधार ।। सीम. ।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं नि. स्वाहा। मिथ्यावादी दुष्ट लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिन में जीत जैन के मेरु खड़े हैं ।। फल अति उत्तम सों जजों (हों) वांछित फल-दातार ।। सीम. ।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल-फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर-इन्द्रनि हू तैं थुति पूरी न करी है।। 'द्यानत' सेवक जानके (हो) जग तैं लेह निकार ।। सीमं. ।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योअनयंपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। जयमाला (सोरठा) ज्ञान-सुधाकर चन्द, भविक-खेत हित मेघ हो। भ्रम-तम भान अमन्द, तीर्थंकर बीसों नमों।। (चौपाई) सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी। बाहु बाहु जिन जग-जन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे।। ११८000000000 1000000 जिनेन्द्र अर्चना जात सुजात केवलज्ञानं, स्वयंप्रभू प्रभु स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋषि भानन दोष, अनंतवीरज वीरज कोषं ।। सौरीप्रभ सौरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं। वज्रधार भवगिरि वज्जर हैं, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं।। भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्रीभुजंग भुजंगम हरता। ईश्वर सबके ईश्वर छाऊँ, नेमिप्रभु जस नेमि विराजै ।। वीरसेन वीरं जग जानें, महाभद्र महाभद्र बखानै ।। नमों जसोधर जसधरकारी, नमों अजित वीरज बलधारी ।। धनुष पाँचसै काय विराजै, आयु कोटि पूर्व सब छाजै। समवशरणशोभित जिनराजा, भवजल-तारन-तरन जिहाजा।। सम्यक् रत्नत्रय-निधि दानी, लोकालोक-प्रकाशक ज्ञानी। शत-इन्द्रनि करि वंदित सोहैं, सुन-नर-पशुसबके मन मोहैं।। ॐ ह्रीं श्रीविद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो अनयंपदप्राप्तये महायं निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) तुमको पूजें वंदना, करें धन्य नर सोय । 'द्यानत' सरधा मन धरै, सो भी धर्मी होय।। पुष्पांजलिं क्षिपेत् । मैं महा-पुण्य उदय से जिन-धर्म पा गया ।।टेक ।। चार घाति कर्म नाशे, ऐसे अरहंत हैं। अनन्त चतुष्टय धारी, श्री भगवन्त हैं ।। मैं अरहंत देव की शरण आ गया ।।मैं || अष्ट कर्म नाश किये, ऐसे सिद्ध-देव हैं। अष्ट गुण प्रकट जिनके, हुए स्वयमेव हैं।। मैं ऐसे सिद्ध देव की शरण आ गया ।।मैं. ।। वस्तु का स्वरूप बताये, वीतराग-वाणी है। तीन लोक के जीव हेतु, महाकल्याणी है।। मैं जिनवाणी माँ की शरण आ गया । मैं. || परिग्रह रहित, दिगम्बर मुनिराज हैं। ज्ञान-ध्यान सिवा नहीं, दूजा कोई काज है। मैं श्री मुनिराज की शरण आ गया । मैं. || जिनेन्द्र अर्चना/1000000 60
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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