________________
चैतन्य-सुरभि की पुष्पवाटिका, में विहार नित करते हो। माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु सुधा की पीते हो।। निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम काम की ज्वाला से।
प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल-मधु मधुशाला' से। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम्.....
यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो! इसकी पहिचान कभी न हई। हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत्-तृष्णा अविरल पीन' हुई।। आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये। सत्वर' तृष्णा को तोड़ प्रभो! लो, हम आनंद-भवन पहुँचे।। ॐह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम्....... विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला विस्मय । कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव ।। पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निज निधियाँ।
अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम्... तेरा प्रासाद महकता प्रभु! अति दिव्य दशांगी' धपों से। अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मों के कीट-पतंग अरे ।। यह धूप सुरभि-निर्झरणी, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ। छक गया योग-निद्रा में प्रभु! सर्वांग अमी है बरस रहा।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम्.. निज लीन परम स्वाधीन बसो, प्रभु! तुम सुरम्य शिव-नगरी में। प्रति पल बरसात गगन से हो, रसपान करो शिव-गगरी में।। ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भव-संतति का अंतिम क्षण। प्रभु! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् ......... तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए।
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूति अनुभूति लिये ।। १.अनुभूति २. सुन्दर रचना ३. शरीर ४. तूफान ५. ज्ञप्ति परिवर्तन ६. आत्मप्रदेशों का कम्पन ७. आठ गुण ८. रात ९. उत्कृष्ट भक्ति परिणाम १०. निज शुद्धात्म-संवेदन।
100 जिनेन्द्र अर्चना
हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर-वैभव की मस्ती। है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा।
जयमाला
(दोहा) चिन्मय हो, चिद्रूप प्रभु! ज्ञाता मात्र चिदेश।
शोध-प्रबंध चिदात्म के, स्रष्टा तुम ही एक।। जगाया तुमने कितनी बार! हआ नहिं चिर-निद्रा का अन्त । मदिर सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं सन्त ।। घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान । निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ।। ज्ञान की प्रति पल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम । अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ।। किन्तु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनन्त । अरे! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी बसंत ।। नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति । क्षम्य कैसे हों ये अपराध? प्रकृति की यही सनातन रीति ।। अतः जड़-कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश । और फिर नरक-निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश ।। घटा घन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश । नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच ।। करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव! अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव! दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान । शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान ।। "अरे मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव।
शुभाशुभ की जड़ता को दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ।। १. आत्मा के शुद्धि-विधान की शोध २. मादक ३. तोता और बंदर जैसी ४. बिजली ५. मृत्यु जिनेन्द्र अर्चना/00000
११४
58