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(पद्धरि छंद) चउ कर्मसु त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि। जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ।।२।। शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इन्द्र नमत कर सीस धार । देवाधिदेव अरहन्त देव, वन्दौं मन-वच-तन कर सुसेव ।।३।। जिनकी धुनि द्वै ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत ।।४।। सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग । रवि-शशिन हरै सोतम हराय, सोशास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय।।५।। गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रय निधि अगाध । संसार देह वैराग धार, निरवांछि तपै शिव-पद निहार ।।६।। गुण छत्तिस पच्चिस आठ-बीस, भव-तारन-तरन जिहाज ईस।
गरु की महिमा वरनीनजाय, गुरुनाम जपोंमन-वचन-काय ।।७।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्योऽनय॑पदप्राप्तये जयमालामहाऽयं निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा) कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै। 'द्यानत' सरधावान, अजर-अमर पद भोगवै ।।८।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
देव-शास्त्र-गुरु पूजन
(श्री जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत) केवल-रवि-किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर । उस श्री जिन-वाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ।। सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण। उन देव परम-आगम गुरु को शत-शत वन्दन, शत-शत वन्दन ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र तिष्ठ, तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । इन्द्रिय के भोग मधुर विष-सम, लावण्यमयी कंचन काया। यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अबतक जान नहीं पाया ।। मैं भूल स्वयं निज वैभव को, पर-ममता में अटकाया हूँ।
अब निर्मल सम्यक्-नीर लिये, मिथ्यामल धोने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जड़-चेतन की सब परिणति प्रभु! अपने-अपने में होती है। अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ती है।। प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है।
सन्तप्त हृदय प्रभु! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास-गुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। उज्ज्वल हूँ कुन्द-धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किञ्चित् भी। फिर भी अनुकूल लगें, उन पर, करता अभिमान निरन्तर ही।। जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खण्डित काया। निज शाश्वत अक्षय-निधि पाने, अब दास चरण-रज में आया।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु! भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं।। चिंतन कुछ फिर संभाषण कुछ, किरिया कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर-कालुष धोती है।।
ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना 00000000000000000000000000
भजन
अब प्रभु चरण छोड़ कित जाऊँ। ऐसी निर्मल बुद्धि प्रभु दो, शुद्धातम को ध्याऊँ ।।टेक. ।। सुर नर पशु नारक दुख भोगे, कबतक तुम्हें सुनाऊँ। बैरी मोह महा दुख देवे, कैसे याहि भगाऊँ । अब. ।। सम्यग्दर्शन की निधि दे दो, तो भवभ्रमण मिटाऊँ। सिद्ध स्वपद को प्राप्त करूँ मैं, परम शान्त रस पाऊँ। अब.।। भेदज्ञान का वैभव पाऊँ, निज के ही गुण गाऊँ। तुम प्रसाद से वीतराग प्रभु, भवसागर तर जाऊँ।।अब ।।
10. जिनेन्द्र अर्चना
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