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आमर्ष औषधि आषि विष, अरु दृष्टि विष सर्वौषधि । खिल्ल औषधि जल्ल औषधि, विडौषधि मल्लौषधि ।। ये ऋद्धिधारी महा मुनिवर, सकल संघ मंगल करें। जिनके प्रभाव सभी सुखी हों, और भव-जलनिधि तरें।।९।। क्षीरस्रावी मधुस्रावी घृतस्रावी मुनि यशी। अमृतस्रावी ऋद्धिवर, अक्षीण संवास महानसी ।। ये ऋद्धिधारी सब मुनीश्वर, पाप मल को परिहरैं। पूजा विधि के प्रथम अवसर, आ सफल पूजा करें ।।१०।। कर जोड़ दास 'गुलाब' करता, विनय चरणन में खड़ा। सम्यक्त्व दरशन-ज्ञान-चारित्र, दीजिये सबसे बड़ा ।। जबतक न हो संसार पूरा, चरण में रत नित रहें। वसुकर्म क्षयकर शिव लहें, बस और कुछ नाहीं चहें ।।११।।
(इति परमर्षिस्वस्तिमंगलविधानं पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
देव-शास्त्र-गुरु पूजन (पं. द्यानतरायजी कृत)
(अडिल्ल) प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू । गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू ।। तीन रतन जगमाहिं सु ये भवि ध्याइये । तिनकी भक्ति-प्रसाद परम-पद पाइये ।।
(दोहा) पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरुपद सार ।
पूजों देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव, वषट् ।
(हरिगीतिका एवं दोहा) सुरपति उरग नरनाथ तिन करि, वन्दनीक सुपदप्रभा । अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा।। वर नीर क्षीर-समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहुविधि नचूँ। अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। मलिन वस्तु हर लेत सब, जल-स्वभाव मल छीन ।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो जन्मजरामृत्यविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जे त्रिजग-उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे । तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे।। तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ। अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।।
चंदन शीतलता करै, तपत वस्तु परवीन ।
जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
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भजन
श्री मुनि राजत समता संग, कायोत्सर्ग समाहित अंग ।।टेक ।। करतें नहिं कछु कारज तातें, आलम्बित भुज कीन अभंग। गमन काज कछु है नहिं तातें, गति तजि छाके निज रस रंग ।।१।। लोचन तें लखिवो कछु नाहीं, तातै नाशादृग अचलंग। सुनिये जोग रह्यो कछु नाहीं, तातै प्राप्त इकन्त-सुचंग ।।२।। तह मध्याह्न माहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग। कैयौं ज्ञान पवन बल प्रज्वलित, ध्यानानल सौं उछलि फुलिंग ।।३।। चित्त निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूष तरंग। 'भागचन्द' ऐसे श्री गुरु-पद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ।।४।।
- पं. भागचन्दजी
10. जिनेन्द्र अर्चना
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जिनेन्द्र अर्चना