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दर्शन-स्तुति
(श्री अमरचन्दजी कृत) अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया।
अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने।। पाये अनंते दुःख अब तक, जगत को निज जानकर । सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहिं पहिचान कर ।। भव बंधकारक सुखप्रहारक, विषय में सुख मानकर । निज पर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधि-सुधा नहिं पानकर ।।१।।
तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये।
निज ज्ञान कला उर जागी, रुचि पूर्ण स्वहित में लागी।। रुचि लगी हित में आत्म के, सत्संग में अब मन लगा। मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रँगा ।। प्रिय वचन की हो टेव, गुणिगण गान में ही चित पगै। शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादनतें भगै ।।२।।
कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर । ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर ।। धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ। दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दस धारन करूँ।। तप तप॑ द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्रव परिहरूँ। अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपु को निर्जरूँ ।।३।।
कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ। कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ।। कर दूर रागादिक निरन्तर आत्म को निर्मल करूँ। बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ।। आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चकैं। आवे 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुखद भवसागर तरूँ।।४।।
100 जिनेन्द्र अर्चना
दर्शन-स्तुति (पं. दौलतरामजी कृत)
(दोहा) सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन ॥१॥
(पद्धरि छन्द) जय वीतराग-विज्ञानपूर, जय मोहतिमिर को हरन सूर। जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरजमण्डित अपार ।।२।। जय परमशांत मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत। भवि भागन वचजोगे वशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाय ।।३।। तुम गुण चिंतत निजपर विवेक, प्रकटै, विघटें आपद अनेक। तुम जगभूषण दूषणविमुक्त, सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ।।४।। अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप। शुभ-अशुभविभाव-अभावकीन, स्वाभाविकपरिणतिमय अछीन ।।५।। अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर। मुनिगणधरादि सेवत महंत, नव केवललब्धिरमा धरंत ।।६ ।। तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव । भवसागर में दुख छार वारि, तारन को और न आप टारि ।।७।। यह लखि निजदुखगद हरणकाज, तुम ही निमित्तकारण इलाज। जाने ता” मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ।।८।। मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल पुण्य-पाप। निज को पर को करता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान ।।९।।
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि। तन परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्वपदसार ॥१०॥ तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश ।
पशु नारक नर सुरगति मँझार, भव धर-धर मस्यो अनंत बार ।।११।। जिनेन्द्र अर्चना/0000
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