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जब देखा कि जैनेतरों की भाँति जैन भी जिनेन्द्रदेव की आराधना छोड़कर उन्हीं देवी-देवताओं की ओर आकर्षित होकर अपने वीतराग धर्म से विमुख होते जा रहे हैं तो कतिपय विचारकों ने धर्म वात्सल्य एवं करुण भाव से नवग्रह विधान की रचना करके यह मध्यम मार्ग निकाला होगा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि- ग्रह शान्ति के लिए अन्य देवी-देवताओं के द्वार खटखटाने की जरूरत नहीं है, जिनेन्द्र देव की आराधना से ही अनिष्ट का निवारण होगा। कहा भी है
“अर्क चन्द्र कुज सौम्य गुरु, शुक्र शनिश्चर राहु । केतु ग्रहारिष्ट नाशनें, श्री जिनपूज रचाहु ।।"
नवग्रह विधान : एक संभावना यह भी जैनधर्म में एक वीतराग देव के सिवाय और कोई भी देव-देवी अष्ट द्रव्य द्वारा पूज्य नहीं हैं। नवदेव और कोई नहीं, प्रकारान्तरसेवीतराग देव के ही विविध रूप हैं। अरहंत व सिद्ध तो साक्षात् वीतराग हैं ही, आचार्य उपाध्याय व साधु भी वीतरागता के ही उपासक हैं तथा स्वयं भी एकदेश वीतरागी हैं। तथा जिनधर्म, जिनवचन, जिनप्रतिमा व जिनालय भी वीतराग के ही प्रतीक हैं। उक्तं च -
"अरहंत सिद्ध साहू तिदयं जिणधम्म वयण पडिमाहू ।। जिणणिलया इदराए, णव देवा दितु मे बोहि ।।" अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवचन, जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर - ये नवदेव मुझे रत्नत्रय की पूर्णता देवें।
उपर्युक्त नवदेवों को एक जिनप्रतिमा में ही गर्भित बताते हुए रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पं. सदासुखदासजी कहते हैं - ___ “सो जहाँ अरहंतनि का प्रतिबिम्ब है, तहाँ नवरूप गर्भित जानना; क्योंकि आचार्य, उपाध्याय व साधु तो अरहंत की पूर्व अवस्थायें हैं। अर सिद्ध पहले अरहंत होकर सिद्ध हुए हैं। अरहंत की वाणी सो जिनवचन है और वाणी द्वारा प्रकाशित हुआ अर्थ (वस्तु स्वरूप) सो जिनधर्म है। तथा अरहंत का स्वरूप (प्रतिबिम्ब) जहाँ तिष्ठै, सो जिनालय है। ऐसे नवदेवतारूप भगवान अरहंत के प्रतिबिम्ब का पूजन नित्य ही करना योग्य है।"
नवग्रह विधान के आद्योपान्त अध्ययन से ऐसा लगता है कि इसकी रचना उन परिस्थितियों में हुई होगी, जब जैनेतर लोग ज्योतिष विद्या में अधिक विश्वास रखते थे तथा ग्रहों की चाल से ही अपने भले-बुरे भविष्य का निर्णय करते थे एवं ग्रहों के निमित्त से होनेवाले अरिष्टों (अनिष्टों) के निवारणार्थ ज्योतिषयों के निर्देशानुसार ग्रहों की शान्ति के लिए देवी-देवताओं की आराधना एवं मन्त्रों-तन्त्रों की साधना किया करते थे। १. पं. सदासुखदास : रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका, पृष्ठ २०८
1000 जिनेन्द्र अर्चना
“श्री जिनवर पूजा किये, ग्रह अनिष्ट मिट जाय।
पंच ज्योतिषी देव सब, मिलि सेवें प्रभु पाय ।।"२ यद्यपि सभी धर्मों में निष्काम भक्ति ही उत्कृष्ट मानी गई है, तथापि इसप्रकार की पूजा बनाने का मुख्य प्रयोजन यह था कि पूजक पहले देवीदेवताओं की पूजा छोड़कर जिनपूजा करना आरम्भ करे, जिससे गृहीत मिथ्यात्व से बच सके । तदर्थ यह बताना जरूरी था कि जिस फल की प्राप्ति के लिए तुम देवी-देवताओं को पूजते हो, वही सब फल जिनपूजा से प्राप्त हो जायेगा; अन्यथा वे उस गलत मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में नहीं आते । जिनेन्द्र पूजा से लौकिक फलों की पूर्ति की बात सर्वथा असत्यार्थ भी तो नहीं है; क्योंकि मन्दकषाय होने से जो सहज पुण्यबंध होता है, उससे सभी प्रकार की लौकिक अनुकूलतायें भी प्राप्त तो हो ही जाती हैं? तथापि कामना के साथ की गई पूजा-भक्ति निष्काम भक्ति की तुलना में हीन तो है ही - इस ध्रुव सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
कुछ लोग तो ग्रहों की शान्ति हेतु ग्रहों की भी पूजा करने लगे थे, उनकी दृष्टि से उपर्युक्त दूसरे दोहे में बताया गया है कि नवग्रहों की पूजा करना योग्य १. नवग्रह विधान : प्रथम समुच्चय पूजा की स्थापना का दोहा। २. नवग्रह विधान : प्रथम पूजा की जयमाला का प्रथम दोहा। जिनेन्द्र अर्चना 100 00
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