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सचित्त द्रव्यों से पूजन करने का निषेध करते हुए वे आगे लिखते हैं -
"इस दुषमकाल में विकलत्रय जीवनि की उत्पत्ति बहुत है, अर पुष्पनि में बेंद्री, तेन्द्री, चौइन्द्री, पंचेन्द्री त्रस जीव प्रगट नेत्रनि के गोचर दौड़ते देखिये हैं... । अर पुष्पादि में त्रस जीव तो बहुत ही हैं। अर बादर निगोद जीव अनंत हैं... । तातै ज्ञानी धर्म बुद्धि हैं ते तो समस्त कार्य यत्नाचार तैं करो....।'' ___ उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि आगम में सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजन का विधान है, वह कहाँ किस अपेक्षा है - यह समझकर हमें अचित्त द्रव्य से ही पूजा करना चाहिए। पण्डित सदासुखदासजी के ही शब्दों में -
"जे सचित्त के दोष तैं भयभीत हैं, यत्नाचारी हैं, ते तो प्रासुक जल, गन्ध, अक्षत कू चन्दन कुमकुमादि तें लिप्त करि, सुगन्ध रंगीन चावलों में पुष्पनि का संकल्प कर पुष्पनि तैं पू हैं तथा आगम में कहे सुवर्ण के पुष्प व रूपा के पुष्प तथा रत्नजटित सुवर्ण के पुष्प तथा लवंगादि अनेक मनोहर पुष्पनि करि पूजन करें हैं, बहुरि रत्ननि के दीपक व सुवर्ण रूपामय दीपकनि करि पूजन करें हैं तथा बादाम, जायफल, पूंगीफलादि विशुद्ध प्रासुक फलनि तैं पूजन करें हैं।"
यद्यपि पूजन में सर्वत्र भावों की ही प्रधानता है, तथापि अष्ट द्रव्य भी हमारे उपयोग की विशेष स्थिरता के लिए अवलम्बन के रूप में पूजन के आवश्यक अंग माने गये हैं। आगम में भी पूजन के अष्ट द्रव्यों का विधान है, किन्तु पूजन-सामग्री में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि ऐसी कोई वस्तु पूजन के अष्ट द्रव्य में सम्मिलित न हो, जो हिंसामूलक हो और जिसके कारण लोक की जगत की संचालन व्यवस्था में कोई बाधा या अवरोध उत्पन्न होता हो।
यहीकारणहैकिगेहूँ, चना, जौआदिअनाजों को पूजन-सामग्री में सम्मिलित नहीं किया गया है; क्योंकि वे बीज हैं, बोने पर उगते हैं। देश की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ समृद्धि के भी साधन हैं । इसी हेतु से दूध दही-घी आदि का भी अभिषेक, पूजन एवं हवन आदि में उपयोग नहीं होना चाहिए। तथा १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, पण्डित सदासुखदास, श्लोक ११९, पृष्ठ २११ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, पण्डित सदासुखदास, श्लोक ११९, पृष्ठ २०६
इसीकारण निष्तुष-निर्मल-शुभ्र तण्डुल और जल-चन्दन-नैवेद्य-दीप-धूपफल आदि प्राकृतिक वसूखे-पुराने प्रासुक पदार्थ ही पूजन के योग्य कहे गये हैं। __ भले ही जल-चन्दन-नैवेद्य-दीप-धूप और फल आदि लौकिक दृष्टि से सोना-चाँदी एवं जवाहरात की भाँति बहुमूल्य नहीं हों, किन्तु जीवनोपयोगी होने से ये पदार्थ बहुमूल्य ही नहीं, बल्कि अमूल्य भी हैं। जल भले ही बिना मूल्य के मिल जाता हो, परन्तु जल के बिना जीवन संभव नहीं है, इसीकारण उसे जीवन भी कहा है। तथा चन्दन, अक्षत, दीप, धूप, पुष्प, फलादि सामग्री भले ही जल की भाँति जीवनोपयोगी न हो, तथापि “कर्पूरं घनसारं च हिमं सेवते पुण्यवान्” की उक्त्यनुसार इसका सेवन (उपभोग) पुण्यवानों को ही प्राप्त होता है। इसतरह यद्यपि ये पदार्थ भी सम्मानसूचक होने से पूजन के योग्य माने गये हैं, किन्तु अहिंसा की दृष्टि से इन सबका प्रासुक व निर्जन्तुक होना आवश्यक है।
जब हमारे यहाँ कोई विशिष्ट अतिथि (मेहमान) आते हैं तो हम उनके स्वागत में अपने घर में उपलब्ध उत्कृष्टतम पदार्थ उनकी सेवा में समर्पित करते हैं। स्वयं तो स्टील की थाली में भोजन करते हैं किन्तु उन्हें चाँदी की थाली में कराते हैं। स्वयं पुराने कम्बल-चादर ओढ़ते-बिछाते हैं और मेहमान के लिए नये-नये वस्त्र-बर्तन आदि काम में लेते हैं। उसीतरह जिनेन्द्र भगवान की पूजन के लिए आचार्यों ने उत्तमोत्तम बहुमूल्य जीवनोपयोगी और सम्मानसूचक पदार्थों को समर्पण करने की भावना प्रकट की है।
परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो-जो पदार्थ पूजनों में लिखे हैं, वे सभी पदार्थ उसी रूप में पूजन में अनिवार्य रूप से होने ही चाहिए। जिसके पास जो संभव हो, अपनी शक्ति और साधनों के अनुसार प्राप्त पूजन सामग्री द्वारा पूजन की जा सकती है। इतना अवश्य है कि वह पूजन सामग्री अचित्त, निर्जन्तुक-प्रासुक व पवित्र हो।
मोक्षमार्गप्रकाशक में श्री टोडरमलजी ने भी यह लिखा है -
"केवली के व प्रतिमा के आगे अनुराग से उत्तम वस्तु रखने का दोष नहीं है। धर्मानुराग से जीवन का भला होता है।" १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पाँचवाँ अधिकार, पृष्ठ १६४, पंक्ति ९ जिनेन्द्र अर्चना 1000000
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