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२४. श्री महावीर भगवान का अर्घ्य
(अवतार)
(१) जल-फल वसु सजि हिमथार, तन-मन मोद धरों। गुण गाऊँ भवदधि तार, पूजत पाप हरों ।। श्री वीर महा अतिवीर, सन्मतिनायक हो । जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (हरिगीत) (२) इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अन्-अर्घ्य पद के सामने । उस परम पद को पा लिया, हे पतित-पावन! आपने ।। सन्तप्त मानस शान्त हों, जिनके गुणों के गान में। वे वर्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ****
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थाँकी उत्तम क्षमा पै जी अचम्भो म्हानें आवे । किस विधि कीने करम चकचूर | टेक ॥ एक तो प्रभु तुम परम दिगम्बर, पास न तिल तुष मात्र हुजूर । दूजे जीव दया के सागर, तीजे सन्तोषी भरपूर ।। १ ।। चौथे प्रभु तुम हित उपदेशी तारण तरण मशहूर । कोमल वचन सरल सद्वक्ता, निर्लोभी संयम तप सूर ।। २ ।। कैसे ज्ञानावरणी नास्यौ, कैसे कर्यो अदर्शन चूर । कैसे मोह-मल्ल तुम जीत्यो, कैसे किये घातिया दूर || ३ || कैसे केवलज्ञान उपायो, अन्तराय कैसे निरमूल ।
सुर नर मुनि सेवें चरण तुम्हारे, तो भी नहीं प्रभु तुमकू गरूर ||४ || करत दास अरदास नयन सुख यह, वर दीजे मोहि जरूर। जनम-जनम पद पंकज सेबूँ, और न चित कछु चाह हुजूर ।।५ ।।
जिनेन्द्र अर्चना
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अकृत्रिम चैत्यालयों के अर्घ्य ( शार्दूलविक्रीडित)
कृत्रिमाकृत्रिम - चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी-गतान्, वंदे भावनव्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान् । सद्गंधाक्षतपुष्प-दाम-चरुकै: सद्दीपधूपैः फलैद्रव्यैनीरमुखैर्यजामि सततं दुष्कर्मणां शांतये ।। १ ।। ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयसंबंधि-जिनबिम्बेभ्यो ऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( उपजाति)
वर्षेषु - वर्षान्तर - पर्वतेषु नन्दीश्वरे यानि च मंदरेषु । यावंति चैत्यायतनानि लोके सर्वाणि वंदे जिनपुंगवानाम् ।। २ ।। (मालिनी) अवनि तल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां,
इह
वन भवन गतानां दिव्य वैमानिकानां । मनुज - कृतानां देवराजार्चितानां, जिनवर-निलयानां भावतोऽहं स्मरामि || ३ || ( शार्दूलविक्रीडित) जंबू-धातकि-पुष्करार्ध-वसुधा-क्षेत्र त्रये ये भवाश्चन्द्राभोज - शिखंडि-कण्ठ-कनक प्रावृड्घनाभा जिनाः । सम्यग्ज्ञान- चरित्र - लक्षणधरा दग्धाष्ट- कर्मेन्धनाः, भूतानागत- वर्तमान-समये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः || ४ || (स्रग्धरा) श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजत-गिरिवरे शाल्मलौ जंबुवृक्षे, वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकर - रुचिके कुंडले मानुषांके । इष्वाकारे जनाद्रौ दधि-मुख-शिखरे व्यन्तरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोकेऽभिवंदे भवन-महितले यानि चैत्यालयानि ।। ५ ।। ( शार्दूलविक्रीडित)
द्वौ कुंदेंदु - तुषारहार धवला द्वाविन्द्रनील प्रभौ,
बंधूक - सम-प्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभौ । शेषाः षोडश जन्म-मृत्यु-रहिताः संतप्त - हेम-प्रभाः, ते संज्ञान - दिवाकराः सुरनुताः सिद्धिं प्रयच्छंतु नः ।। ६ ।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकसंबंधि - कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयेभ्यो ऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना
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