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________________ जान रहा हूँ, देख रहा हूँ से~ १३८ जिन खोजा तिन पाइयाँ पिटा है। द्वितीय - कुत्ते की पूँछ १२ वर्ष तक भी पुंगी में क्यों न डाली जाये, जब भी निकलेगी टेढ़ी ही निकलेगी। तृतीय - कुत्ते में एक कमी यह भी होती है कि वह बिना प्रयोजन भी भौंकता रहता है, और दूसरे कुत्तों को देखकर तो वह जरूर ही भौंकता है। यदि कुत्तों की मौत नहीं मरना चाहते हो तो मनुष्य को कुत्ते के इन दुर्गुणों से बचना चाहिए। (५) कोई अपने मनोविकारों को कितना भी छिपाये, पर चेहरे की आकृति हृदय की बात कह ही देती है। खोटी नियत जाहिर हुए बिना नहीं रहती और खोटी नियत का खोटा नतीजा भी सामने आ ही जाता है। (६) जिस भाँति ज्ञानीजन निज निधि को एकान्त में ही भोगते हैं, उस तरह व्यवहारीजनों को भी अपने मान पोषण के लिए अपने बाह्य वैभव का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। ___धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग हैं' अतः जो सिद्धान्त हमने यहाँ समझेसुने हैं, उनका हमें अपने पारिवारिक-व्यापारिक और सामाजिक जीवन में प्रयोग भी करना चाहिए; क्योंकि घर-परिवार या व्यापार और समाज के क्षेत्र में ही ऐसे अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग बनते हैं, जहाँ हमारे तत्त्वज्ञान की परीक्षा होती है। पैसे का आना-जाना तो पुण्य-पाप का खेल है। पुण्योदय से छप्पर फाड़कर चला आता है और पापोदय से तिजोड़ी तोड़कर चला जाता है। धन का संचय अन्याय से नहीं करना, क्योंकि अन्याय का पैसा कालान्तर में मूल पूँजी सहित नष्ट हो जाता है। (८) न्यायोपात्त धन अधिकतम छटवाँ और न्यूनतम दसवाँ भाग सत्कार्यों में, ज्ञानदान में, परोपकार में लगना चाहिए तथा 'तुरंत दान महाकल्याण' जितना जो बोल दिया हो, देने की घोषणा कर दी हो, तत्काल दे देना चाहिए। क्या पता अपने परिणाम या परिणस्थितियाँ कब विपरीत हो जायें और दिया हुआ दान न दे पायें। पैसा तो उस कुएँ के पानी की भाँति है, जिस कुएँ की झिर चालू है। कृषक उस कुएँ से दिनभर चरस चलाकर सम्पूर्ण पानी को खेतों में सींचसींच कर कुँआ खाली कर देता है। वह खाली कुँआ प्रतिदिन प्रातः फिर उतना ही भर जाता है, कुएँ की तरह तिजोड़ी को भी कोई कितनी भी खाली कर दे, पुण्योदय की झिर से वह पुनः भर जायेगी। अपने भाग्य पर भरोसा रखो और धर्माचरण में मन लगाओ। धर्माचरण मुक्ति का मार्ग तो है ही, धर्माचरण की अपूर्णता धन आने का भी स्रोत है। वस्तुतः एक-दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता नहीं है, क्योंकि दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ता भाव की वज्र की दीवाल है। शक्ति से अधिक दान नहीं देना, अन्यथा आकुलता हो सकती है तथा लोभ के वश शक्ति छुपाना भी नहीं। दान देकर उसके फल की वांछा-कांछा नहीं करना, बदले की अपेक्षा नहीं रखना। आत्मा का धर्म तो मात्र जानना-देखना ही है। यदि एकजीव दूसरे का भला-बुरा करने लगे तो उसके पुण्य-पाप का क्या होगा? कहा भी है - स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फला निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो स्वयं किए निष्फल होते ।। . (७१)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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