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________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ विदाई की बेला से इस दिशा में हमें सदैव सक्रिय रहना चाहिए। (६८) स्त्री-पुरुष-कुटुम्ब-परिवार के प्रति हुआ अनुराग तो दुःखद होता ही है, पर धर्मानुराग भी कम कष्टकारक नहीं होता; क्योंकि साधर्मी वात्सल्य में भी तो गहरा आघात लग सकता है। (६९) सर्वज्ञ भगवान के सिवाय कोई नहीं जानता कि किसको/कब/क्या हो जाए। जिस दिन मौत का पैगाम आ जाएगा, यह सब कुछ यहीं ऐसे ही छोड़कर सदा-सदा के लिए चला जाना होगा। केवल भली-बुरी करनी ही अपने साथ जाएगी, जिसका नतीजा नरक-निगोद में जाकर भोगना पड़ेगा। (७०) जो कुकर्म करने में जितना शूरवीर-दुस्साहसी होता है, यदि वह सुलट जावे तो धर्म के क्षेत्र में भी वह वैसा ही शूरवीरपना दिखा सकता है, धर्म के क्षेत्र में भी उतना ही सफल सिद्ध हो सकता है। कहा भी है - “जे कम्मे सूराः ते धम्मे सूरा"। (७१) धर्म प्रेमियों को जितना प्रेम अपने विषय-कषाय व स्वार्थ के साथ कई स्त्री-पुत्र व कुटुम्ब-परिवार से होता है, उससे भी कई गुना अधिक प्रेम अपने साधर्मीजनों से होता है, और जितना प्रेम साधर्मीजनों से होता है, उससे भी कई गुना अधिक प्रेम देव-शास्त्र-गुरु तथा जिनबिम्ब, जिनालय व धर्म तीर्थों से होता है। तथा जितना प्रेम धर्मायतनों, धर्म के साधनों से होता है; उससे भी कई गुना अधिक प्रेम अपने ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा से, शुद्धात्मा या कारण परमात्मा से होता है। (७२) भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना में ऐसी प्रतिज्ञा ली जाती है कि - "मैं समस्त पापारम्भ से विरक्त होकर पाँचों पापों का त्याग करके मन-वचनकाय व कृत-कारित अनुमोदनापूर्वक विषय-कषाय की रुचि, शोक, भय, अवसाद, अरति आदि कलुश-पाप परिणामों का भी त्याग करके अपने आत्मा में स्थिर होता हूँ। भक्त प्रत्याख्यान का अर्थ है - आहार को क्रम-क्रम से कम करते हुए धीरे-धीरे त्यागते हुए देह को कृश करना तथा व्रत-नियम-संयम द्वारा कषायों को भी कृश करके देह त्यागना । दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी शारीरिक शक्ति प्रमाण और आयु की स्थिति प्रमाण आहार को घटाकर दूध आदि पेय पीना, फिर क्रम से दूधादि पेय पदार्थों का भी त्याग करके अपनी शक्ति प्रमाण उपवासादि करके आत्मा व परमात्मा के ध्यानपूर्वक विषय-कषायों को कृश करते हुए देह को त्यागना भक्त प्रत्याख्यान समाधि है। (७३) सल्लेखना का धारक पुरुष अपने बाह्यभ्यन्तर बल एवं परिणामों को जानकर विषय-कषायों के त्यागपूर्वक शरीरादि बाह्य संयोगों एवं आहारादि का क्रमशः त्याग करता है। तथा जगत के सब प्राणियों के साथ जानेअनजाने में हुए अपराधों के प्रति हित-मित-प्रिय वचनों के द्वारा क्षमा माँगता हुआ स्वयं भी क्षमाभाव धारण करता है। (७४) समाधिमरण में ऐसी प्रतिज्ञा ली जाती है कि यदि उपसर्ग, दुर्भिक्ष या रोग आदि से मैं मुक्त हो जाऊँगा तो ही आहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा मरणपर्यन्त अन्नादि आहार का सर्वथा त्याग तो है ही' तथा वह यह संकल्प करता है कि - 'मैं सर्वपापों का त्याग करता हूँ, मेरा सब जीवों से समता भाव है, किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है, मैं सर्व विघ्न-बाधाओं को छोड़कर समाधि ग्रहण करता हूँ, कषाय रहित होने का प्रयत्न करता हूँ (३१)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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