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________________ विदाई की बेलासे होता। (५८) मृत्यु के समय ज्ञानी की आँखों में आँसू देखकर ही उसे अज्ञानी नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि उसके अभी केवल अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषायों का ही तो अभाव हुआ है। अप्रत्याख्यानादि तीन कषायों की चौकड़ी तो अभी भी उसके विद्यमान है, अतः श्रद्धा तो ज्ञानी की सिद्धों के समान निर्मल हो गई है; पर चारित्रगुण में अभी कमजोरी है, इसकारण वियोग जनित क्षणिक दुःख का वेग आ जाना अस्वाभाविक नहीं है। जिन खोजा तिन पाइयाँ सकता। अतः अब हम घर-गृहस्थी के कर्त्तापने के भार से पूर्ण निर्भार होकर तथा दूसरों के भला-बुरा करने की चिन्ता से मुक्त होकर क्यों न अपने स्वरूप में जमने-रमने का प्रयत्न करें? (५५) संयोग न सुखद है न दुःखद । दुःखद तो केवल संयोगी भाव होते हैं, अतः संयोगों पर से दृष्टि हटाकर स्वभाव सन्मुख दृष्टि करना ही श्रेष्ठ है। (५६) सम्यग्दृष्टि (आत्मज्ञानी) की दृष्टि में मृत्यु इतनी गंभीर समस्या नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता। वह यह बात अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तरण मात्र है, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतारकर नया वस्त्र धारण करने के समान है। सम्यग्दृष्टि भगवान आत्मा को ज्ञानज्योति स्वरूप चैतन्य देव के रूप में देखता है। वह अपने स्वरूप को पर द्रव्यों से पृथक्, रागादि से रहित, शाश्वत ज्ञाता-दृष्टा ही जानता है, मानता है तथा मृत्यु को केवल देह से देहान्तर होने रूप क्रिया मानता है। इसकारण वह मृत्यु से नहीं डरता। जबकि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को अनादि से देह में अपनापन होने से उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व लुटा-लुटा-सा लगता है, अतः उसका भयभीत होना भी स्वाभाविक ही है। जिस जीव का जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म-मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है, उस जीव का उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र टालने में समर्थ नहीं हैं, अन्य की तो बात ही क्या है? (६०) "तीन लोक में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव से परिणमन करते हैं, कोई किसी का कर्ता-भोक्ता नहीं है। जब यह शरीर स्वयं ही उत्पन्न होता है और स्वयं ही बिछुड़ता है, स्वयं ही गलता है, स्वयं ही बढ़ता है तो फिर मैं इस शरीर का कर्ता-भोक्ता कैसे?" इसप्रकार संसार, शरीर और आत्मा के स्वरूप के यथार्थ ज्ञान हो जाने से सम्यग्दृष्टि मृत्यु से नहीं डरता। (६१) निर्भय व निर्लोभी हुए बिना सत्य कहा नहीं जा सकता और संपूर्ण समर्पण के बिना सत्य सुना व समझा नहीं जा सकता। (६२) यद्यपि दूसरों को समझाने की आपकी भावना उत्तम है। पर वस्तुतः दूसरों को समझाना सहज कार्य नहीं है; क्योंकि समझ बाहर से नहीं अन्दर जिसप्रकार जिस मिट्टी के साँचे में शुद्ध चाँदी की मूर्ति ढाली जाती है, वह साँचा टूटने पर चाँदी की मूर्ति नहीं टूटती, वैसे ही शरीररूपी साँचे में आत्मा की मूर्ति विराजती है, जो कभी नहीं टूटती। पर पदार्थ व अपनी पर्याय से भेदज्ञान होने से उसे अपने आत्मा में ही अपनापन रहता है। अतः श्रद्धा व विवेक के स्तर पर उसे मृत्युभय नहीं
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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