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________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ विदाई की बेलासे (१६) व्यक्ति विद्वान न हो तो भी बुद्धिमान हो सकता है; क्योंकि विद्या अर्जित ज्ञान को कहते हैं और बुद्धि जन्मजात प्रतिभा को। बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है और दुनियाँ में पढ़े-लिखे मूरों की कमी नहीं है। अतः किसी के पुस्तकीय ज्ञान से प्रभावित न हों। विपरीत परिस्थितियों में भी लोग सभ्य भाषा में ऐसा ही बोलते हैं। न केवल बोलते हैं, कभी-कभी उन्हें स्वयं को ऐसा लगने भी लगता है कि वे विरागी हो रहे हैं; जबकि उन्हें वैराग्य नहीं, वस्तुतः द्वेष होता है। केवल राग अपना रूप बदल लेता है, वह राग ही द्वेष में परिणित हो जाता है, जिसे वे वैराग्य या संन्यास समझ लेते हैं। (१८) सारा जगत स्वार्थी है, कोई किसी का नहीं है। चाहे वह जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाने वाली पत्नी हो या भाई-भतीजे हों। क्या पत्नी और क्या पुत्र-पौत्र सभी अपने-अपने सुख के संगाती हैं, स्वार्थ के साथी हैं। किसी कवि ने ठीक ही कहा है - कमला चलत न पैंड, जाय मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुख को रोवें, पिता-पुत्र-दारा ।। प्राणांत होने के बाद कमला (धन-दौलत) जीव के साथ एक कदम भी तो नहीं जाती। जहाँ की तहाँ पड़ी रहती है। परिजन-पुरजन भी केवल मरघट तक जाकर लौट आते हैं। पुत्र-पौत्रादि-कुटुम्बीजन तीन दिन बाद अपने-अपने धंधे में लग जाते हैं और तेरह दिन बाद तो मानो उन सबके फिर सुनहरे दिन लौट आते हैं और सब अपने-अपने राग-रंग में मस्त हो जाते हैं। फिर कौन किसको याद करता है? उपर्युक्त कथन में जो संसार की वस्तुस्थिति का चित्रण किया है वह किसी से द्वेष करने के लिए नहीं, बल्कि वैराग्य बढ़ाने के लिए कहा गया है। (१९) संसार का स्वरूप हमें पलायन करना नहीं सिखाता, बल्कि वह पर्याय का सत्य समझाकर उसके साथ समतापूर्वक समायोजन करना, समझौता करना सिखाता है। (२०) संसारी जीवन तो संघर्षों का ही दूसरा नाम है। और संघर्षों का जन्म बाहर में नहीं, अन्तर में होता है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास में जैसे-जैसे कषायें कम होंगी, इष्टानिष्ट कल्पनाएँ भी सीमित होंगी, संघर्ष भी सीमित हो जायेंगे तथा कषायों का शमन जीवन से पलायन करने से नहीं, पर्याय के सत्य को समझने और उसे स्वीकार करने से होता है। अतः सर्वप्रथम पूरी शक्ति से वर्तमान पर्याय के सत्य को भी समझना होगा। (२१) __जो घर में रहकर कषायों के कारण उत्पन्न हुई पारिवारिक जीवन की छोटी-छोटी प्रतिकूलताओं का धीरज के साथ सामना नहीं कर सकता, वह वनवासी मुनि जीवन की कठोर साधना कैसे करेगा? तथा प्राकृतिक परीषहों और परकृत उपसर्गों को कैसे सहेगा? (२२) सबसे पहले शास्त्राभ्यास द्वारा हमें तत्त्व निर्णय करना होगा, ज्ञान स्वभावी आत्मा का निश्चय करना होगा, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के यथार्थ स्वरूप को समझना होगा, फिर जो पर की प्रसिद्धि में ही मात्र निमित्त हैं। ऐसी पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों पर से अपनी रुचि को हटाकर आत्म सन्मुख करना होगा। तभी सन्यास एवं समाधि की पात्रता प्राप्त होगी। यहीं से होता है संन्यास एवं समाधि का शुभारंभ । (२३) वस्तुतः समाधि मृत्यु महोत्सव नहीं, जीवन जीने की कला है। इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। (२२)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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