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________________ अवलम्बन से भेदज्ञान और आत्मानुभूति प्राप्त हो गई। इससे पूर्व मेरी विजयसेना पत्नी से गन्धर्वसेना पुत्री ह | और मनोरमा पत्नी से सिंहयश और वाराहग्रीव - ये दो पुत्र हुए थे। ॥ एक दिन मैंने बड़े पुत्र को राज्यपद एवं छोटे को युवराज पद देकर मुनि दीक्षा ले ली।" अमितगति विद्याधर मुनिराज ने पूछा - "हे चारुदत्त ! यह समुद्र से घिरा कुम्भकंटक नामक द्वीप है। | यहाँ तुम कैसे आये?" | "मुनिश्री के पूछने पर मैंने वहाँ पहुँचने की आप बीती पूरी कथा कह सुनाई। उसी समय उन विद्याधर मुनिराज के दोनों पुत्र सिंहयश और वाराहग्रीव आकाश से नीचे उतरे और उनकी वंदना की। उसी समय दो देव भी विमान से उतरकर आये और उन्होंने पहले मुझे (चारुदत्त) और बाद में मुनिराज को नमस्कार किया। विद्याधर कुमारों ने इस अक्रम का कारण पूछा - 'हे देवो! तुमने पहले श्रावक और बाद में मुनि को नमस्कार क्यों किया?' प्रथम देव ने इसका कारण बताते हुए कहा - "चारुदत्त ने मुझे पूर्वपर्याय में णमोकार महामंत्र दिया एवं जिनधर्म का उपदेश दिया था, फलस्वरूप मैं बकरे की पशु पर्याय से देव हुआ। इसकारण ये मेरे साक्षात् गुरु हैं एवं इनका मुझ पर महान उपकार है।" दूसरे देव ने कहा - "मैं एक परिव्राजक रूप धारी धोखेबाज के द्वारा रसायन के प्रलोभन से जिस रसकूप में गिरा दिया था, कालान्तर में उसीप्रकार की घटना से ये चारुदत्त भी उसी रसकूप में आ पड़े थे और मुझे मरणासन्न देख इन्होंने मुझे जिनधर्म का रहस्य समझाया था, जिससे मैंने जिनेन्द्र का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्यागे और मैं सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ हूँ। इसतरह चारुदत्त मेरे भी साक्षात् गुरु हैं।" इन घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि जो पापरूपी कुएँ में और दुःखद संसार सागर में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है, उसके समान संसार में परोपकारी और कौन हो सकता है? सचमुच यह ही परम उपकार है। ऐसा ही उपकार तीर्थंकर और गणधर देव भी करते हैं। FOR FRVF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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