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८९॥ वह बोला - "मैं उज्जैनी का एक वणिक हूँ? मेरा जहाज फट गया था। मुझे एक साधु वेषधारी व्यक्ति ||
| ने इसी रसायन के लालच के चक्कर में डालकर मेरी यह हालत कर दी। रि || रसपान प्राप्त करने के लोभ में वह व्यक्ति यह विधि अपनाता है। उसने एक रस्सी में तूम्बी बाँधकर कुएँ
में लटकायी और दूसरी रस्सी से मुझे कुएँ में उतार दिया। मैंने रसायन भरकर लूम्बी तैयार की तो उस सन्यासी |ने रसायन की रस्सी तो खेंच ली और मेरी रस्सी काट दी। रसायन को मैंने भूल से चख लिया तभी से यहाँ पड़ा यह नारकी जीवन जी रहा हूँ और तिल-तिल गल-गल कर मर रहा हूँ। इसलिए मैंने तुम्हें सचेत किया है कि तुम रसायन को पीने की भूल मत करना, अन्यथा जो दशा मेरी हो रही है, वही हालत तुम्हारी हो जायेगी। देखो, उस सन्यासी ने तुम्हारी रस्सी भी काट दी है और तुम्हारे द्वारा रसभरी तूम्बी ऊपर खेंच कर उसका रस लेकर वह दुष्ट यहाँ से चला गया है। ___ अब मैं तुम्हें बाहर निकलने का उपाय बताता हूँ। एक गोह रसायन पीने आती है, जब वह वापिस ऊपर चढ़ने लगे तो तुम तुरंत उसकी पूँछ पकड़ लेना। इसतरह तुम इस मुसीबत से बच जाओगे। मुझे यह बात जब समझ में आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उस समय मैं पूंछ पकड़ने की स्थिति में नहीं रहा था।
उस उज्जैनी के अंधकूप में पड़े मरणासन्न वणिक के द्वारा बताये उपाय से मैं (चारुदत्त) अपने प्राण बचाकर वहाँ से आगे बढ़ा तो मार्ग में उद्धत भैंसा एवं अजगर आदि अनेक उपद्रवों से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना करते हुए मैं एक गाँव में पहुँचा।"
चारुदत्त ने आगे कहा - "मैंने वहाँ काका रुद्रदत्त को देखा। मैं कई दिन का भूखा-प्यासा था, रुद्रदत्त ने मेरी खाने-पीने की व्यवस्था कर मुझसे कहा - अब हम दोनों स्वर्णद्वीप चलकर वहाँ बहुत सारा धन कमाकर चम्पापुरी वापिस चलेंगे, जिससे अपने कुल की रक्षा हो सके।"
चारुदत्त काका रुद्रदत्त से सहमत होकर व्यापार के लिए वहाँ से चले और अनेक नदी-पर्वतों को पार कर टंकण देश में पहुँचे। वहाँ से आगे का मार्ग बहुत विषम था, अत: दोनों ने दो ऐसे बकरे खरीदे, जो उस मार्ग को पार करने में सक्षम थे।
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