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________________ फिर हम दोनों जुआ खेलते रहे । इसी बीच मुझे प्यास लगी तो उसने बुद्धि को मोहित करनेवाली कोई वस्तु | पानी में मिलाकर मुझे पिला दी। उसके प्रति बुद्धि विमोहित हो जाने से मेरा उससे इतना अनुराग बढ़ गया कि मैं उसके घर बारह वर्ष रहा। वृद्ध जनों की सेवा से पहले जो मेरे गुणों में वृद्धि हुई थी, उस तरुणी में विषयासक्ति से उत्पन्न हुए दोषों के कारण वे सब धूलधूसरित हो गये, सब मिट्टी में मिल गये। मेरे पिता सोलह करोड़ दीनारों के धनी थे। वह सब धन धीरे-धीरे वसंतसेना के घर आ गया। जब मेरी पत्नी मित्रवती के आभूषण भी आने लगे तब वसंतसेना की माँ कलिंगसेना से बोली - "हे बेटी ! तू अपनी आजीविका की इस जघन्यवृत्ति को तो जानती ही है कि धनवान लोग ही हमारे प्रिय होते हैं। अपने धंधे में जिसका पूरा धन हमने खींच लिया हो, अब वह ईख के छिलके के समान छोड़ने योग्य होता है। आज चारुदत्त की भार्या ने अपने शरीर के आभूषण उतार कर भेजे थे, सो उसे देख मैंने करुणा करके वे आभूषण वापिस कर दिए हैं। अतः अब सारहीन (निर्धन) चारुदत्त का साथ छोड़ और नई रसीली ईख के समान किसी दूसरे धनवान मनुष्य का उपभोग कर !" कलिंगसेना की बातें सुनकर वसंतसेना को बहुत दुःख हुआ, उसने माता से कहा - "माँ ! तूने यह क्या कहा? कुमारकाल से जिसे स्नेह दिया; चिरकाल तक जिसके साथ जीवन समर्पित किया, अब मैं उसको छोड़कर साक्षात् धन कुबेर को भी स्वीकार नहीं कर सकती। प्राण जाने की कीमत पर भी मैं चारुदत्त को नहीं छोड़ सकती। अरे ! उसके घर से आये करोड़ों दीनारों से तेरा घर भर गया। फिर भी तू उसे छोड़ने को कहती है ? क्या सचमुच 'स्त्रियाँ ऐसी अकृतज्ञ होती हैं?' मैं तुझे ऐसा नहीं मानती थी। हे माता ! जो अनेक कलाओं का पारगामी है, अत्यन्त रूपवान है, समीचीन धर्म का ज्ञाता और पालन करने वाला है, त्यागी है, उदार है, उस चारुदत्त का त्याग मैं कैसे कर सकती हूँ?" चारुदत्त ने आगे कहा - "इसप्रकार वसन्तसेना का विचार सुनकर उसकी माँ उसको मुझमें अति आसक्त | जानकर उससमय तो कुछ नहीं कह सकी; किन्तु मन में हम दोनों को अलग करने का उपाय भी सोचती रही। ॥ ५ FOR FRVF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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