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________________ F5 0 यथास्थान चले गये। इधर तिरस्कार पाकर पर्वत भी अनेक देशों में परिभ्रमण करता रहा । अन्त में उसने | द्वेषपूर्ण दुष्ट महाकाल नामक असुर को देखा। पूर्वभव में जिसका तिरस्कार हुआ था, उस महाकाल असुर के लिए अपने परभव का समाचार सुनाकर पर्वत उसके साथ मिल गया और दुर्बुद्धि के कारण हिंसापूर्ण | शास्त्र की रचना कर लोक में ठगिया बन हिंसापूर्ण यज्ञ का प्रदर्शन करता हुआ प्राणी हिंसा में तत्पर होकर मूर्खजनों को प्रसन्न करने लगा। अन्त में पापोपदेश के कारण पापरूपी शाप के वशीभूत होने से पर्वत भी मरकर मानो वसु की सेवा करने के लिए नरक ही चला गया। बड़े खेद की बात है कि एक ओर तो वसु सत्यजनित प्रसिद्धि को पाकर भी अन्त में मोहवश हिंसा | एवं झूठ पापों के प्रचार में कारण बनकर नरक गया तथा अभिमान के वशीभूत हुआ पर्वत भी उसके पीछे नरक में ही गया; वहीं दूसरी ओर सम्यग्दृष्टि दिवाकर नामक विद्याधर मित्र को पाकर एवं पर्वत के मिथ्यामत | का खण्डन कर नारद कृत-कृत्य होता हुआ स्वर्ग गया। जीवों पर दया करना व्यवहार से अहिंसाधर्म है। निरन्तर हिंसा के त्यागरूप ऐसा दयाधर्म का पालन करना और अपने प्राण जाने पर भी जीव वध से दूर रहना हिंसा का त्याग है, यही व्यवहार धर्म है। आदरपूर्वक आचरण किया हुआ यह धर्म मोह को भेदकर साक्षात् स्वर्ग और परम्परा मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचा देता है। राजा वसु की अनेक पीढ़ियों का संक्षिप्त परिचय कराते हुए कहा है कि वसु से बृहद्ध्वज और बृहद्ध्वज से सुबाहु नामक धर्मनिष्ठ पुत्र हुए। बृहद्ध्वज मथुरा का राजा था, उसके पुत्र सुबाहु, सुबाहु से दीर्घवायु, दीर्घवायु से वज्रबाहु आदि अनेक राजा हुए, जो अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर जिनदीक्षा लेते रहे। ___ वर्तमान चौबीसी के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के धर्मतीर्थ प्रवर्तनकाल में हजारों राजा हुए और प्रायः सबने जिनदीक्षायें ग्रहण कर आत्मा का कल्याण किया। तदनन्तर इसी वंश में २२ वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ हुए। भगवान नेमिनाथ की मनुष्यपर्याय की आयु एक हजार वर्ष की थी। हरिवंश रूपी उदयाचल पर ही सूर्य के समान तेजस्वी यदु' नाम का राजा उदित ॥२ 0 REV
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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