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ने शिष्यों के साथ अपने पति क्षीरकदम्ब को घर पर आया न देख शंकित होकर शिष्यों से पूछा - आपके उपाध्यायजी कहाँ गये? साथ में घर क्यों नहीं आये? " शिष्यों का उत्तर था - आते ही होंगे। आप चिंतित न हों। स्वस्तीमती दिनभर तो प्रतीक्षा करती हुई
चुप बैठी रही; परन्तु जब क्षीरकदम्ब रात्रि में भी घर नहीं आये तो उसके शोक की सीमा नहीं रही। वह पति की भावनाओं से सुपरिचित थी; इसकारण उसने सोचा - "संभवतः उन्होंने दीक्षा ले ली है, यह सोचकर वह रातभर रोती रही। प्रातः होने पर पर्वत एवं नारद अपने गुरु उपाध्याय क्षीरकदम्ब को खोजने निकले । वे कितने ही दिन भटकते-भटकते थक गये, अन्त में उन्होंने देखा कि हमारे पिता (गुरु) क्षीरकदम्ब वन में अपने गुरु के पास निर्ग्रन्थ मुद्रा में बैठे पढ़ रहे हैं। पिता को इसप्रकार बैठा देखकर पर्वत का धैर्य छूट गया उसने दूर से ही लौटकर माँ के लिए सब समाचार सुनाये। यह समाचार जानकर प्रारंभ में तो स्वस्तीमती बहुत दुःखी हुई; किन्तु धीरे-धीरे सामान्य हो गई और माँ-बेटे सुख-शान्ति से रहने लगे।
पर्वत तो पिता क्षीरकदम्ब को मुनि मुद्रा में देख उनसे बिना मिले ही लौट आया था; परन्तु नारद विनयवान था, अत: उसने गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया, उनसे वार्तालाप कर अणुव्रत धारण किए और उसके बाद वह घर वापस आया। अतिशय-निपुण नारद ने आकर शोक से सन्तप्त पर्वत की माता को आश्वासन दिया, नमस्कार किया और उसके बाद अपने घर की ओर प्रस्थान किया। तदनन्तर वसु के पिता राजा अभिचन्द्र भी संसार से उदासीन हो गये, वे अपना राज्य वसु को सौंपकर तपोवन में चले गये।
राजनीति के वेत्ता राजा वसु ने समस्त पृथ्वी को वशीभूत कर लिया था। वह सभा में आकाश स्फटिक के ऊपर स्थित सिंहासन पर बैठते थे, इसलिए अन्य राजा उसे आकाश में स्थित मानते थे। वह स्फटिक पर ही चलता था और सदा सत्य बोलता था तथा सत्य पक्ष का ही पोषण करता था, वह सत्य के आचरण और उसके प्रदर्शन - दोनों को आवश्यक मानता था। इसकारण सम्पूर्ण राज्य में उसका यश फैल रहा था |
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