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४०|| पूजा की। तदनन्तर हर्षपूर्वक आहारदान दिया। उस समय राजा सुमुख और वनमाला के परिणाम एक || समान विशुद्ध हो गये थे; इसलिए दोनों को ही एक जैसा फल देनेवाला पुण्यबन्ध हुआ।
आहार के उपरान्त दोनों को उपदेश का पात्र जानकर-वरधर्म मुनिराज ने उन्हें सम्बोधित किया। अपने आध्यात्मिक उद्बोधन में मुनिराज ने कहा - "हे भव्य! यह मानव जन्म पाना अति दुर्लभ है। | जो हमें किसी पुण्य विशेष से सहज प्राप्त हो गया है, यदि इसे हमने विषयान्ध होकर यों ही विषयों | में खो दिया तो 'समुद्र में फेंके चिन्तामणि रत्न' जैसी मूर्खता ही होगी। उसे कोई भी व्यक्ति बुद्धिमान नहीं कहेगा? थोड़े से पुण्य के उदय में उलझकर वह अज्ञानी प्राणी अपने दुर्लभ मनुष्यभव रूप चिन्तामणि रत्न को संसार के भयंकर दुःख समुद्र में डुबोने का कार्य कर रहा है । मोहवश अज्ञानी को || इतना भी विवेक नहीं रहता कि - यह सांसारिक सुख बाधा सहित हैं, क्षणिक हैं, इसके आदि, मध्य एवं अन्त में - तीनों काल दुःख ही दुःख है, ये पाप के बीज हैं। इस विषयानन्दी रौद्रध्यान का फल साक्षात् नरक है; अतः समय रहते तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त कर इस मनुष्य जन्म में भव के अभाव का बीज बो देने में ही बुद्धिमानी है। एतदर्थ नियमित स्वाध्याय और यथायोग्य व्रत नियम-संयम के साथ ही जीवन जीने की कला का अभ्यास करना चाहिए।
मुनिराज ने तत्त्वोपदेश देते हुए आगे कहा - परमात्मा दो प्रकार के होते हैं । १. कारण परमात्मा, २. कार्य परमात्मा । अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख एवं अनन्तवीर्य को प्राप्त अरहंत एवं सिद्ध भगवान कार्य परमात्मा हैं, उन्होंने अपने स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव रूप स्वचतुष्टय के सहारे घातिया-अघातिया कर्मों का अभाव करके कार्य परमात्मा का पद प्राप्त किया है।
हम-तुम और समस्त भव्य जीव स्वभाव से परमात्मा हैं। जिन जीवों में कार्यपरमात्मा बनने के कारण रूप निज की उपादानगत योग्यता विद्यमान है, वे सब कारणपरमात्मा हैं। जो जीव कार्यपरमात्मा के द्वारा प्राप्त जिनवाणी के रहस्य को जानकर वस्तुस्वातंत्र्य आदि सिद्धान्तों को समझकर अपने अनादिकालीन अज्ञान एवं मोहान्धकार का नाश करके आत्मानुभव कर लेते हैं। पर में हुई एकत्व,
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