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_ 'संसार में पुण्य-पाप का खेल भी विचित्र है और होनहार बलवान है, उसे कोई टाल नहीं सकता।'
श्रीकृष्ण और बलदेव के जीवन की अनेक घटनायें इस बात की प्रबल प्रमाण हैं। जो बलदेव और श्रीकृष्ण पहले सूर्योदय के पूर्वार्द्ध की भाँति पुण्योदय से लोकोत्तर उन्नति करते रहे, वे जीवन के अन्तिम क्षणों में बन्धुजनों से भी बिछुड़ गये, शोकाकुल हो गये।
जीवित रहने की आशा से बलदेव और श्रीकृष्ण दोनों भाई दक्षिण दिशा की ओर चले। वहाँ वे भूखप्यास से व्याकुल होकर किसी आश्रम की तलाश करने लगे। पाण्डवों के सहयोग प्राप्त करने की आशा से दक्षिण मथुरा की ओर जा रहे थे कि मार्ग में हस्तप्रभ नगर में पहुँचे। वहाँ कृष्ण तो उद्यान में ठहर गये
और बलदेव वस्त्र से शरीर ढककर (वेष बदलकर) भोजन-पानी के लिए नगर में गये, वहाँ भोजन-पानी लेकर वे नगर के बाहर निकल ही रहे थे कि राजा के पहरेदारों ने उन्हें पहचान लिया और राजा को खबर कर दी। वह राजा धृतराष्ट्रके वंश का था, यादवों के दोष देखनेवाला था, अतः उसने उनके वध के लिए सेना भेज दी।
श्रीकृष्ण ने हाथी को बाँधने का खम्भा और सांकल उठाई और उसे ही हथियार बनाकर सारी सेना को खदेड़ दिया तथा भोजन-पानी लेकर वन में चले गये। रास्ते में सरोवर में स्नानकर जिनेन्द्र का स्मरण कर भोजन किया और कौशाम्बी वन में पहुँच गये। वहाँ पानी मिलने की कोई संभावना नहीं थी। कृष्ण प्यास से व्याकुल हो गये। उन्होंने बलदेव से कहा – “हे आर्य ! यह पानी तो बहुत पिया अब इस सारहीन संसार में सम्यग्दर्शन के समान तृष्णा को दूर करनेवाला शीतल जल पिलाइए।"
इसप्रकार कृष्ण के कहने पर स्नेह से भरे बलदेव ने कहा - हे भाई ! मैं शीघ्र शीतल पानी की व्यवस्था | २७
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