SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो संसार विर्षे सुख हो तो, तीर्थंकर क्यों त्यागे। काहे को शिव साधन करते, संयम सों अनुरागे। __ अत: वीतराग धर्म ही एक शरणभूत है - ऐसा समझकर अपने में वीतरागता प्रगट होने के कारणभूत जैनदर्शन में बताये वस्तुस्वातंत्र्य एवं उसकी प्राप्ति का उपाय स्वावलम्बन तथा कर्ता-कर्म आदि सिद्धान्तों | को समझना अत्यन्त आवश्यक है। पंचमगति को प्राप्त सिद्ध भगवान शरीर रहित हैं, सुखरूप हैं तथा ज्ञान-दर्शनमय हैं। द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म - इन तीनों कर्ममल से रहित पूर्ण निर्मल हैं, सर्वज्ञ हैं। समस्त लोक और अलोक को एक साथ जानते हुए परम वीतरागी और अनन्त आनन्दानुभूति करते हुए सदा सुख से स्थिर रहते हैं। यदि हम भी सिद्धों जैसा अनन्त सुख प्राप्त करना चाहते हैं तो उनके स्वरूप को जानकर उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होने पर प्रतिदिन सिद्धों का स्मरण करें, उनकी आराधना करें तो उन जैसे स्वयं बन जायेंगे। जो व्यक्ति सर्वज्ञता के स्वरूप को एकान्तरूप से (निश्चय से) आत्मज्ञ ही मानते हैं और उनकी त्रिकालज्ञता को व्यवहारनय का विषय कहकर अभूतार्थ कहते हैं, उन्हें इन प्रथमानुयोग में आये सर्वज्ञकथित भव-भवान्तरों के प्रकरणों को भी देखना चाहिये। सिद्ध भगवान वस्तुत: त्रिकालज्ञ हैं, लोकालोक के सर्वद्रव्यों, उनके अनन्त गुणों, प्रत्येक गुण की प्रतिसमय होनेवाली सहभावी एवं क्रमभावी पर्यायों को एक साथ जानते हैं। इसमें किंचित भी शंका की गुंजाइश नहीं है। श्रोता के मन में जिज्ञासा उठी - कालद्रव्य का स्वरूप क्या है ? दिव्यध्वनि द्वारा समाधान मिला - सुनो! “वर्तना लक्षण से युक्त निश्चय कालद्रव्य समस्त द्रव्यों की वर्तना में - षट्गुणी-हानिवृद्धिरूप परिणमन में निमित्त है। समस्त पदार्थ जो परिणाम क्रिया से परत्व और अपरत्व रूप परिणमित होते हैं, वे अपने-अपने अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्तों से प्रवृत्त होते हैं। वे कालाणु परस्पर प्रवेश रहित रत्नों की राशि की भाँति पृथक्-पृथक् समस्त लोक को व्याप्तकर | राशिरूप में स्थित हैं।
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy