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२२|| पितातुल्य पूज्य अग्रज की आज्ञा स्वीकार कर ली।
एक दिन कुब्जा नाम की दासी रानी के लिए सुगन्ध-पानादि लिए जा रही थी। वसुदेव ने उससे कौतूहलवश सुगन्ध छीन ली। तब वह ताना देती हुई कहने लगी - "तुम्हारे इस कौतूहली स्वभाव के कारण तो तुम्हें यहाँ महल में बन्दी बना रखा है।” दासी के मुख से यह वचन सुनकर वसुदेव को विचार आया - “अरे! सुरक्षा के बहाने यह तो मेरे साथ धोखा किया गया है।" यह जानते ही कुमार वसुदेव समुद्रविजय से विमुख हो गये और मन्त्रसिद्धि का बहाना कर एक नौकर को साथ लेकर रात्रि के समय श्मसान में गये। वहाँ नौकर को एक स्थान पर दूर बैठा दिया और कहा कि 'जब मैं आवाज दूँ तब आना।' ऐसा कह कर वे स्वयं कुछ दूर चले गये । वहाँ एक मुर्दे को अपने आभूषणों से अलंकृत कर तथा उसे एक चिता पर रखकर उन्होंने जोर से कहा “पिता के समान पूज्य अग्रज और चुगली करने वाले नगरवासी सन्तुष्ट होकर चिरकाल तक सुखी रहें, मैं अग्नि में प्रविष्ट हो रहा हूँ' - इसप्रकार जोर से कहकर तथा दौड़कर अग्नि में प्रवेश करने का नाटकीय प्रदर्शन कर छुप गये और वहाँ से अज्ञातवास में चले गये। दूर बैठे नौकर ने यह सुना; परन्तु उतनी दूर से वास्तविकता नहीं जान सका। इसकारण उसने यह खबर राजा तक पहुँचा दी कि वसुदेव ने अग्नि में जलकर आत्मघात कर लिया है।
वसुदेव ब्राह्मण का भेष धारणकर पश्चिम की ओर चले गये। जहाँ चम्पापुरी नगर में गंधर्वसेना से और विजयखेट नगर में सोमा और विजयसेना से उनका विवाह हुआ।
जीवों के जब तक जैसे पुण्य का उदय होता है तब तक वैसे अनुकूल संयोगों का मिलना सहज में ही होता रहता है। ___ एक दिन घूमते हुए वे एक सरोवर के किनारे पहुँचे। वहाँ जलतरंग की आवाज सुनकर एक जंगली हाथी | ने उपद्रव करते हुए पापोदय से वसुदेव पर भयंकर आक्रमण कर दिया; किन्तु पूर्व पुण्योदय और वर्तमान |