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तत्पश्चात् सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणों का भोज होनेवाला था, वहाँ ब्राह्मण का वेष धारणकर सबसे आगे की पंक्ति में जा बैठा। एक अपरिचित ब्राह्मण को आगे बैठा देखकर सब ब्राह्मण रिकुपित हो गये । उस ब्राह्मण भोज में जितना भोजन बना था, वह सब अकेला ब्राह्मण वेषधारी प्रद्युम्न खा वं गया। खाने को जब कुछ भी न बचा तो सत्यभामा को कृपण बताकर खाया भोजन वहीं उगल कर बाहर
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अब वह नकली साधु का वेष धारण कर रुक्मणी के महल में गया । वहाँ उसने रुक्मणी के द्वारा दिये गये लड्डू खाये। उसी समय सत्यभामा का नाई रुक्मणी के शिर के बाल लेने के लिए वहाँ आ पहुँचा। | प्रद्युम्न को बाल काटने की बात पहले से ज्ञात थी, अतः उसने नाई का खूब तिरस्कार किया । सत्यभामा | द्वारा शिकायत सुन बलदेव रुक्मणी के महल में आने को तैयार हुए तो वहाँ प्रद्युम्न ब्राह्मण के वेष में द्वार पर पैर फैलाकर खड़ा रहा। बलदेव ने उसे दूर हटने के लिए कहा, परन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। कहने लगा कि - 'आज सत्यभामा के घर बहुत भोजन करके आया हूँ । अतः मुझसे उठते नहीं बनता ।' क्रोध में आकर बलदेव ने टांग पकड़कर खींचना चाहा, पर उसने टाँग को इतना मजबूत कर लिया कि वे खींचते - खींचते तंग आ गये। इसप्रकार नाना विद्याओं में कुशल प्रद्युम्न अपनी इच्छानुसार लोगों को आश्चर्य उत्पन्न कराता हुआ बहुत समय तक क्रीड़ा करता रहा ।
प्रद्युम्न के आने के जो चिह्न, जो संकेत नारद ने बतलाये थे, वे माता रुक्मणी को प्रत्यक्ष दिखने लगे । उसके स्तनों से दूध झरने लगा । अत्यन्त आश्चर्य में पड़कर वह विचार करने लगी 'कहीं सोलह वर्ष व्यतीत होने के बाद मेरा पुत्र ही तो रूप बदलकर नहीं आ गया है।' उसी क्षण प्रद्युम्न ने अपने असली रूप में प्रगट होकर पुत्र का स्नेह प्रगट कर माता को प्रणाम किया । पुत्र को देखते ही रुक्मणी आनन्द से भर गई । उसके नेत्र हर्ष के आंसुओं से भर आये। उसने प्रद्युम्न से कहा - 'हे पुत्र ! वह कनकमाला धन्य है, जिसे तेरी बाल क्रीड़ाओं को देखने का सौभाग्य मिला।' इतना कहते ही प्रद्युम्न ने अपना बालक का रूप बनाया और नाना बाल सुलभ क्रीड़ाओं से माता के हृदय को संतुष्ट किया, माता के सभी मनोरथ पूर्ण किए ।
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