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अज्ञान दशा में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं हैं। अज्ञान का तो फल ही यही है। यदि हम चाहते हैं कि ये कुगति की कारणभूत मानादि कषायें हमें न हों तो हम सर्व प्रथम स्व-पर का भेदज्ञान करके परपदार्थों में एकत्व-ममत्व भाव छोड़े और पुण्य-पाप के फलों में प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों की क्षणभंगुरता का विवेक जागृत करें।
जब नारदजी श्रीकृष्ण की सभा में आये तो श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा - "हे नर पुंगव ! आप इस समय कहाँ से आ रहे हैं ? कमल की भाँति खिला हुआ आपका मुख कमल किसी बड़े भारी हर्ष की सूचना दे रहा है।"
नारदजी ने जाम्बव नामक विद्याधर की एक अत्यन्त रूपवती सर्वांग सुन्दर पुत्री जाम्बवती का परिचय कराते हुए कहा - "वह इस समय सखियों के साथ स्नान करने के लिए गंगा नदी में उतरी है और वस्त्राच्छादित होते हुए भी उभरे उरोजों से लजाती हुई अपने लम्बे और काले-काले केश राशि से स्थूल और उतंग उरोजों को आच्छादित करने का प्रयत्न करती हुई अपनी शोभा से चन्द्रमा की शोभा को लज्जित करती है।"
नारदजी ने आगे कहा - "वह सुन्दरी आपके सिवाय किसी अन्य के द्वारा अलभ्य है; क्योंकि ऐसी अनुपम सुन्दरी को प्राप्त करने का अन्य किसी के पास ऐसा पुण्य ही कहाँ है?"
नारद के इसप्रकार वचन सुनकर श्रीकृष्ण जाम्बवती को पाने के लिए उत्सुक हो उठे। वे अनावृष्टि और बलदेव को साथ लेकर वहाँ पहुँचे, जहाँ जाम्बवती अपनी सहेलियों के साथ स्नान कर रही थी, इधर श्रीकृष्ण ने जाम्बवती को देखा और जाम्बवती की दृष्टि भी श्रीकृष्ण पर जा पड़ी। एक दूसरे को देखते ही वे दोनों कामबाण से ऐसे घायल हो गये मानो कामदेव ने अपने पाँचों बाणों से दोनों के हृदयों को वेध दिया हो। वे ऐसा अनुभव करने लगे कि इन्हें पाये बिना तो हमारा जीवन ही निर्रथक है।
बस, फिर तो अवसर पाते ही श्रीकृष्ण जाम्बवती को तत्काल हर कर ले आये। जाम्बवती का हरण | १९