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________________ कहाँ राजा मधु जो २२ सागर के लम्बे काल तक स्वर्ग में रहा, वहाँ से आकर प्रद्युम्न हुआ, तब तक राजा वीरसेन भी न जाने कितनी योनियों में जा चुका होगा, फिर भी उस भव का बैर भाव आत्मा में किसी कोने में पड़ा-पड़ा पापार्जन करता रहा। इसीलिए तो कहते हैं कि अपने द्वारा जाने-अनजाने में हुए अपराधों की यहीं क्षमायाचना करके और दूसरों को क्षमादान देकर सब पाप का हिसाब यही चुकता कर देना चाहिए। | क्षमावाणी पर्व के भी इसीकारण गीत गाये जाते हैं और प्रतिवर्ष यह पर्व जोर-शोर से मनाया जाता है; फिर भी यदि कोई क्रोध की गांठ बांध कर रखे तो उससे बड़ा मूर्ख दुनिया में दूसरा कोई नहीं होगा। सचमुच ऐसे बैरभाव को पुनः पुनः धिक्कार है।। इसप्रकार सीमन्धर भगवान के समोशरण में प्रद्युम्न के जीवन सम्बन्धी शंकाओं का समाधान पाकर राजा पद्मरथ को भारी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बड़ी भक्ति भावना से जिनेन्द्र को प्रणाम किया। इधर आनन्द के वशीभूत हुए नारद सीमन्धर जिनेन्द्र को नमस्कार कर आकाश मार्ग से मेघकूट पर्वत पर आ पहुँचे। वहाँ पुत्रलाभ के उत्सव से नारद ने रानी कनकदेवी एवं कालसंवर राजा का यथायोग्य अभिनन्दन किया। सैंकड़ों कुमारों से सेवा प्राप्त रुक्मणी पुत्र प्रद्युम्न को देख नारद को भारी प्रसन्नता हुई। कालसंवर ने नारद का भी सम्मान किया, उन्हें प्रणाम कर अभिवादन किया। तत्पश्चात् नारद द्वारिका पहुँचे । वहाँ नारद ने प्रद्युम्न के सम्बन्ध में आद्योपान्त सम्पूर्ण जानकारी देकर यादवों को हर्ष प्रदान किया तथा रुक्मणी को उसके अपहरण हुए पुत्र प्रद्युम्न के विषय में सविस्तार समाचार सुनाये, जिसे सुनकर रुक्मणी परम संतोष को प्राप्त हुई। अन्त में नारद ने कहा - हे रुक्मणी ! मैंने विद्याधरों के राजा कालसंवर के घर क्रीड़ा करता हुआ तुम्हारा पुत्र देखा है। वह देवकुमार के समान अत्यन्त रूपवान है। वह सोलह लाभ प्राप्तकर तथा प्रज्ञप्ति विद्या का संग्रह कर सोलहवें वर्ष में तुम्हारे पास अवश्य आवेगा। हे रुक्मणी ! जब उसके आने का समय होगा तब तेरे उद्यान में असमय में ही प्रिय समाचार को सूचित | १९
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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