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समान मुनिराज की आज्ञा प्राप्त कर जैसी आपकी आज्ञा हो यह कह देवों ने दोनों को छोड़ दिया ।
तदनन्तर मुनिराज के समीप जाकर अग्निभूति, वायुभूति ने मुनि और श्रावक के भेद से दो प्रकार का धर्म श्रवण किया और अणुव्रत धारण कर श्रावक पद प्राप्त किया । सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त दोनों चिरकाल तक धर्म का पालन कर मृत्यु को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में देव हुए।
अग्निभूति, वायुभूति के जीव जो सौधर्म स्वर्ग में देव हुए थे, स्वर्ग के सुख भोग, वहाँ से च्युत हुए और अयोध्या नगरी में रहनेवाले समुद्रदत्त सेठ की धारिणी नामक स्त्री से पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें बड़े पुत्र का नाम पूर्णभद्र और छोटे पुत्र का नाम मणिभद्र था । इस पर्याय में भी दोनों ने सम्यक्त्व की विराधना नहीं की थी तथा दोनों ही जिनशासन से स्नेह रखनेवाले थे। किसी समय पूर्णभद्र और मणिभद्र रथ पर सवार | हो मुनिपूजा के लिए नगर से जा रहे थे कि बीच में उन्होंने ज्यों ही एक चाण्डाल तथा कुत्ती को देखा तो उनके हृदय में स्नेह उमड़ आया ।
मुनिराज के पास जाकर दोनों ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर आश्चर्य से युक्त हो उन्होंने पूछा हे स्वामिन् कुत्ती और चाण्डाल के ऊपर हम दोनों को स्नेह किस कारण उत्पन्न हुआ ?
अवधिज्ञान के द्वारा तीनों लोकों की स्थिति को जाननेवाले मुनिराज ने कहा कि अग्निभूति - वायुभूति के जन्म में तुम्हारे जो माता-पिता थे । वे ही ये कुत्ती और चाण्डाल हुए हैं । सो पूर्वभव के कारण इन पर तुम्हारा स्नेह हुआ है। इसप्रकार सुनकर तथा मुनिराज को नमस्कार कर दोनों भाई कुत्ती और चाण्डाल पास पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने उन दोनों को धर्म का उपदेश दिया तथा पूर्वभव की कथा सुनायी, जिससे वे दोनों शान्त हो गये । चाण्डाल ने संसार से विरक्त हो दीनता छोड़ चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और एक माह का सन्यास लेकर नन्दीश्वर द्वीप में देव हुआ। कुत्ती इसी नगर में राजा की पुत्री हुई। | इधर राजपुत्री का स्वयंवर हो रहा था। जिस समय वह स्वयंवर में स्थित थी, उसी समय पूर्वोक्त नन्दीश्वर | देव ने आकर उसे सम्बोधा । जिससे संसार को असार जान सम्यक्त्व की भावना से युक्त उस नवयौवनवती
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