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|| पहले तो विद्याधरी कनकमाला ने उसे लेने के लिए दोनों हाथ पसार दिए; परन्तु फिर उस दूरदर्शी विद्याधरी
|| ने उसे गोद में लेने से मना कर दिया। पति के द्वारा गोद में न लेने के कारण पूछने पर उसने कहा कि आपके रि | अन्य रानियों से उच्चकुल में उत्पन्न हुए पाँच सौ पुत्र हैं। वे अहंकार से यदि इस अज्ञात कुलवाले पुत्र को
भाई नहीं मानेंगे और अनादर करेंगे तो उनका वह व्यवहार मुझे असह्य होगा। अत: मेरा निपूती रहना ही ठीक है।
राजा कालसंवर ने अपनी प्रियपत्नी कनकमाला को आश्वस्त करते हुए कहा - तुम निश्चिन्त रहो ! 'यह युवराज होगा' कनकमाला ने इस सान्त्वना के साथ उस बालक को गोद में ले लिया।
नगर में पहुँचकर कालसंवर ने पुत्र के जन्मोत्सव मनाने हेतु यह घोषित किया महारानी कनकमाला के गूढगर्भ से आज बालक का जन्म हुआ है। अत: सम्पूर्ण नगर में जोरदार जन्मोत्सव मनाया जाय, तदनुसार महोत्सव मनाया गया। स्वर्ण के समान कान्तिवाला होने से उस का नाम प्रद्युम्न रखा गया। वह प्रद्युम्नकुमार सैंकड़ों विद्याधर कुमारों के द्वारा सेवित होता हुआ दिनों-दिन बढ़ने लगा।
इधर द्वारिकापुरी में जब रानी रुक्मणी जाग्रत हुई, उसकी निद्रा भंग हुई तो वह पुत्र को न पाकर जोरजोर से विलाप करने लगी। रुक्मणी के करुण विलाप को सुनकर परिजन तो इकट्ठे हुए ही, श्रीकृष्ण और बलदेव भी तत्काल वहाँ पहुँच गये। श्रीकृष्ण ने रुक्मणी से कहा - हे प्रिये ! अधिक शोक मत करो, धैर्य धारण करो। वह पुत्र साधारण पुत्र नहीं है, वह तुम्हें शीघ्र ही मिलेगा।
इसप्रकार रुदन करती हुई रुक्मणी को आश्वासन देकर एवं शान्त कर पुत्र को खोजने के उपाय करने लगे। उसीसमय संयोग से नारद ऋषि वहाँ आ पहुँचे । सब जनों का शोक कम करते हुए नारद ने श्रीकृष्ण | से कहा - "हे वीर ! आप भी शोक छोड़ो ! मैं शीघ्र आपके पुत्र का सुखद समाचार लाता हूँ। ___ यद्यपि यहाँ नेमिकुमार को अवधिज्ञान है; परन्तु वे तो जानते हुए भी कुछ नहीं बोलेंगे। इसलिए मैं | पूर्वविदेह क्षेत्र में जाकर सीमन्धर भगवान की धर्मसभा से समाधान प्राप्त कर आता हूँ। नारद कृष्ण को धैर्य ॥१९
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