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९९४ || अभिप्राय से निरन्तर आर्त- रौद्र भाव होते हैं, जो अनन्त संसार के कारण हैं। इनका नाश तो एकमात्र इनके सम्बन्ध में सही समझ से ही होता है।
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यहाँ जीवों के पुण्य-पाप के उदयानुसार अनेकभवों के भयंकर उत्थान - पतन की चर्चा द्वारा संसार की विचित्रता का कथन करके, पाठकों को ऐसे क्षणभंगुर, दुःखद - दुरन्त संसार के सुखों से विरक्त कराने का संदेश दिया है।
अन्त में व्यंग्य करते हुए सहृदय कवि आचार्य कहते हैं कि देखो वैर की महिमा !
इसप्रकार आदित्याभ लान्तवेन्द्र से मिथ्यात्व का स्वरूप सुनकर, समझकर प्रबोध को प्राप्त करके धरणेन्द्र | ने सब वैर-भाव छोड़कर संसार सागर से प्राप्त करानेवाला सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया ।
धरणेन्द्र के कहे अनुसार आचरण से सभी विद्याधरों ने अपनी विद्यायें भी प्राप्त कर लीं और उन्हें आत्मकल्याण का मार्ग भी मिल गया।
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तत्पश्चात् विद्याओं के खण्डित हो जाने से जो पंख कटे पक्षियों के समान खेद- खिन्न हो रहे थे - | ऐसे उन विद्याधरों से धरणेन्द्र ने कहा - हे विद्याधरो ! तुम सब शीघ्र ही इस हीमन्त पर्वत पर भगवान संजयन्त | स्वामी की पाँच सौ धनुष ऊँची प्रतिमा स्थापित करो। और उसी प्रतिमा के पादमूल में बैठकर उस प्रतिमा | के आलम्बन से संजयन्त स्वामी की भक्तिभाव से स्तुति करते हुए आत्मा की आराधना करो। इससे तुम्हारे न्त लौकिक मनोरथों की पूर्ति के साथ-साथ आत्मा के कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त होगा ।
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आचार्य कहते हैं “जो जीव दुःखमय संसार सागर से पार होना चाहते हैं वे संजयन्त भगवान के इस पावन चरित्र को पढ़कर एवं उनके आदर्श जीवन का अनुसरण कर स्वयं को वैसा ही बनाये । "
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आदित्याभ लान्तवेन्द्र और धरणेन्द्र अपनी-अपनी देवायु पूर्ण करके मथुरानगरी के धनाढ्य राजा रत्नवीर्य | की प्रथम पत्नी मेघमाला से लान्तवेन्द्र का जीव मेरु नामक पुत्र हुआ एवं द्वितीय अमितप्रभा पत्नी से धरणेन्द्र हो का जीव मन्दर नामक पुत्र हुआ। वे दोनों ही युवा होने पर सांसारिक सुखों को भोगते हुए उन्हें असार जानकर | उनसे विरक्त होकर मुनिव्रत धारण कर मोक्षमार्ग में अग्रसर हो गये। मुनिराज मेरु ने तो मेरु की तरह अचल | होकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया और मन्दर मुनि भी मन्दर की तरह स्वरूप में स्थिर होकर तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के गणधर बन गये ।
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