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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार १०२ ज्ञानधारा-कर्मधारा मिथ्यादृष्टि जीव शुभ में वर्तते हुए शुभभाव में ही धर्म मानता है; किन्तु वह व्यवहाराभासी है। निश्चयधर्म की प्रतीति बिना राग में व्यवहार धर्म का आरोप भी कहाँ से आयेगा ? निश्चयधर्म के बिना किया गया समस्त व्यवहार, व्यवहार नहीं; व्यवहाराभास है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के अमृत वचन जाग! जाग रे जाग !! प्रात: हो गई है, अब रात्रि कहाँ ? जो तू इसप्रकार अचेत सो रहा है ? जिसप्रकार किसी को भंयकर विषधर सर्प ने डस लिया हो और गारुड़ी (मंत्रशास्त्री) ऐसे बलवत्तर मंत्र फैंके कि वह सर्प बिल में से बाहर आकर उस काटे हुए मनुष्य का विष चूस ले। उसीप्रकार चैतन्यप्रभु को अनादिकाल से अज्ञानरूपी महाविष चढ़ रहा है। भगवान कुन्दकुन्दाचार्य उसे जागृत करते हुए कहते हैं कि हे चेतन ! तू जाग !! जाग रे जाग !! यह समयसार के दैवी मंत्र तेरे शुद्धात्म-स्वरूप को दिखाकर अनादिकाल से चढ़े हुए विष को उतार देंगे। अब सोने का समय नहीं है। जाग ! जाग रे जाग !! अपने चैतन्य को देख ! शक्तियों का संग्रहालय भगवान आत्मा अहा ! आत्मा का ज्ञान व आनन्द ही असली, अकृत्रिम व स्थिर रहनेवाला स्वभाव है। उसके अन्तर में जहाँ दृष्टि गई, वहीं पर्याय में उस ज्ञान व आनन्द की निर्मल दशा प्रगट हो जाती है। वह निर्मल पर्याय ही अपना 'स्व' है। अहा ! द्रव्य-गुण व उसकी निर्मल पर्याय ही आत्मा के 'स्व' हैं तथा उनका स्वामी स्वयं धर्मात्मा है। देखो, आत्मा में अनंत शक्तियाँ हैं, उनमें एक 'स्व-स्वामी सम्बन्ध' शक्ति है। इस शक्ति के कारण ही जो त्रिकाली शुद्ध द्रव्य है, वह मैं हूँ। आत्मद्रव्य स्व, त्रिकाली पूर्ण शुद्ध गुण मेरे स्वरूप हैं तथा उनकी जो निर्मल शुद्धस्वभाव पर्याय प्रगट होती है, वह भी मेरे 'स्व' है अर्थात् अपने शुद्धद्रव्यगुण और शुद्ध पर्याय मेरे अपने स्व हैं तथा धर्मी आत्मा उनका स्वामी है। यहाँ कहते हैं कि ज्ञानी पर का ग्रहण-सेवन नहीं करता। भाई ! परमार्थ से राग का कर्तापन व राग का सेवन आत्मा के ही है ही नहीं। आत्मा में राग है ही कहाँ, जो वह राग को करे या राग का सेवन करे । विचारे अज्ञानी को अपने स्वरूप की खबर नहीं है। स्वयं सच्चिदानन्द प्रभु है। आत्मा स्वयं शाश्वत ज्ञान व आनन्दरूप लक्ष्मी का भण्डार है। अहाहा ! ऐसे स्वरूप को स्वीकार करनेवाला धर्मी सुख के मार्ग में है, वह दया-दान आदि के विकल्पों को अपना मानकर सेवन नहीं करता । बस, केवल ज्ञाता-दृष्टा भाव से जानता है कि ये भाव भी हैं और परपने हैं। ऐसा जाननेवाला ही यथार्थ सम्यग्दृष्टि है। -प्रवचनरत्नाकर भाग ६, पृष्ठ : सघन वृक्षों के वन में छाया माँगनी नहीं पड़ती, स्वयं मिलती है वैसे पूर्णानन्द स्वभावी आत्मा के पास याचना नहीं करना पड़ती; परन्तु उस पर दृष्टि पड़ते ही आनन्द स्वयं प्रगट हो जाता है। हे जिनेन्द्र ! आप वीतराग हैं, इसलिए किसी को कुछ देते नहीं और किसी से कुछ लेते नहीं; परन्तु जो आपकी शरण लेता है उसे वृक्ष की छाया के समान स्वयं शरण मिल जाती है। आत्मद्रव्य की दृष्टि करनेवाला निःशंक है कि आत्मा कृपा करेगा ही। पहले विकल्प सहित पक्का निर्णय कर कि राग से, निमित्त से, खण्डखण्ड ज्ञान से या गुण-गुणी के भेद से आत्मा का ज्ञान नहीं होता । पहले ऐसे निर्णय का पक्का स्तम्भ तो रोप ! इससे वीर्य का परसन्मुख प्रवाह रुक जाएगा, भले अभी स्व-सन्मुख होना बाकी है। सविकल्प निर्णय में भी मैं विकल्परूप नहीं हूँ - ऐसा दृढ़ निर्णय तो कर ! निर्णय पक्का होने पर राग लँगड़ा हो जाएगा, राग का जोर टूट जाता है। सविकल्प निर्णय में स्थूल विपरीतता और स्थूल कर्तव्य छूट जाता है और स्वानुभव होने पर सम्यक् निर्णय हो जाता है। १. मोक्षमार्ग प्रकाशक की किरणें, भाग-२, पृष्ठ : २१४-२१७ (मोक्षमार्गप्रकाशक - अध्याय ७, पृष्ठ : २५१ के आधार से पर पूज्य गुरूदेवश्री के प्रवचन) 52
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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