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________________ ९२ ज्ञानधारा-कर्मधारा हुआ है, वह तो परज्ञेय में उपयोग के समय भी धर्मी को नहीं हटता । उपयोग यदि दो घड़ी तक स्वज्ञेय में स्थिर रहे, तब तो केवलज्ञान हो जाये; छद्मस्थ का उपयोग इतने लम्बे काल तक स्वज्ञेय में नहीं ठहरता । यहाँ कहते हैं कि उपयोग भले ही स्व में निरन्तर न रहे, परन्तु लब्धिज्ञान तो प्रतिक्षण वर्त ही रहा है, इसलिए परज्ञेय को जानते हुए भी उसमें धर्मी को एकताबुद्धि नहीं होती; धर्मी सबसे न्यारा ही न्यारा रहता है। बाहर से देखनेवाले को तो ज्ञानी भी दूसरों के जैसा ही दिखे कि हम भी शुभ-अशुभ कर रहे हैं और हमारी तरह ये ज्ञानी भी शुभाशुभ कर रहे हैं; परन्तु भैया ! इनकी परिणति अन्तर में राग से भिन्न कुछ कार्य कर रही है, इनकी प्रतीति में इनके ज्ञान में स्वज्ञेय को वे कभी नहीं भूलते, भले ही उपयोग कदाचित् लड़ाई में या विषय-कषाय में भी हो। यद्यपि विशेष रूप से तो ज्ञानी को शुभराग देव-शास्त्र-गुरु का पूजा - भक्ति स्वरूप - चिन्तन आदि ही होते हैं; तथापि अशुभ का भी इस भूमिका में सर्वथा अभाव नहीं होता। पाँचवें गुणस्थान में भी कभीकभी अशुभभाव आ जाता है, परन्तु यहाँ तो उसी वक्त उसके अन्तर में श्रद्धा व ज्ञान की निर्मल गंगा का प्रवाह बह रहा है - यह दिखाना है। ज्ञानगंगा का यह सम्यक् प्रवाह सभी विकार को धो डालेगा और केवलज्ञान समुद्र में जा मिलेगा। (पृष्ठ : ६०-६२ ) जैसे शुद्धात्मा की प्रतीति सिद्ध भगवान के सम्यक्त्व में हैं, चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि को भी शुद्धात्मा की प्रतीति वैसी ही है, उसमें कुछ भी फर्क नहीं । सिद्ध भगवान का सम्यक्त्व प्रत्यक्ष व चौथे गुणस्थान वाले का सम्यक्त्व परोक्ष ऐसा भेद नहीं है अथवा स्वानुभव के समय सम्यक्त्व प्रत्यक्ष और बाहर में शुभाशुभ उपयोग के समय सम्यक्त्व परोक्ष - ऐसा भी नहीं है। चाहे शुभाशुभ में प्रवर्तता हो या स्वानुभव के द्वारा शुद्धोपयोग में प्रवर्तता हो, सम्यग्दृष्टि का सम्यक्त्व तो सामान्य 47 ज्ञानधारा - कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार वैसा का वैसा है अर्थात् शुभाशुभ के समय सम्यक्त्व में कोई मलिनता आ गई और स्वानुभव के समय सम्यक्त्व में कोई निर्मलता बढ़ गई - ऐसा नहीं है। (पृष्ठ : ७२-७३ ) विशेष यह है कि चौथी भूमिका वगैरह में जो निश्चय - व्यवहार एकसाथ हैं; उनमें भी जो निश्चय - सम्यक्त्वादि है, वह अरागभाव है और जो व्यवहार - सम्यक्त्वादि है, वह सरागभाव है। वे दोनों एक भूमिका में एक साथ विद्यमान रहते हुए भी उनमें जो रागभाव है, वह साथ के अरागभाव को मलिन नहीं करता तथा अरागभाव का कारण भी नहीं होता। दोनों की धारा ही अलग-अलग है; दोनों के कार्य भी जुदे हैं। रागभाव तो बंध का कारण होता है और अरागभाव मोक्ष का कारण होता है। साधक को ऐसी दोनों धाराओं का प्रवाह एकसाथ चलता है; परन्तु जहाँ अकेला शुभराग है, रागरहितभाव बिल्कुल नहीं है तो वहाँ धर्म भी नहीं है। ९३ चतुर्थ गुणस्थान में विद्यमान राग सम्यग्दर्शन की शुद्धि को नष्ट नहीं कर सकता। वह राग यदि व्यक्त हुई शुद्धता को नष्ट करता हो, तब तो किसी को साधकपना ही न हो सके । छठवें गुणस्थान में जो संज्वलन राग है, वह वहाँ की शुद्धता को नष्ट नहीं कर सकता। ऐसी दोनों धारायें एक साथ रहती हैं, तो भी एक नहीं हो जातीं एवं साधक को वीतरागता होने के पूर्व दोनों में से कोई भी धारा सर्वथा छूट नहीं जाती । यदि शुद्धता की धारा टूटे तो साधकपना ही छूटकर अज्ञानी हो जाये और यदि राग की धारा टूट जाये तो तुरन्त ही वीतरागता होकर केवलज्ञान हो जाये । इसप्रकार साधक को निश्चय परिणमन तो निरन्तर चल रहा है। चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर प्रत्येक गुणस्थान में उस-उस भूमिका के योग्य शुद्धधारा सतत चलती रहती है। ( पृष्ठ: ११९ - १२० ) सम्यग्दर्शन के बाद भी जीव के दो प्रकार के भाव होते हैं- एक
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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