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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा ७७ हो जाने चाहिए; किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व होने पर भी अभी परमसम्यक्त्व (परमावगाढ़ सम्यक्त्व) नहीं हुआ है। अतः सभी गुण पूर्ण शुद्ध निर्मल पर्यायरूप से प्रकट नहीं हुए हैं। __भरत चक्रवर्ती को घर में ही वैरागी कहा, उसका अर्थ यह नहीं कि उनको घर में ही मुनिपना था। उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व था; परन्तु उनके भी सभी गुण पूर्णतः निर्मल नहीं हुए थे। शिष्य का प्रश्न है कि एक गुण पूर्ण निर्मल होने पर सभी गुण पूर्ण निर्मल हो जाने चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं है। श्रेणिक राजा को क्षायिक सम्यक्त्व है, वे नरक से निकलकर आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर होंगे; किन्तु उनके भी सभी गुण पूर्ण निर्मल नहीं हैं। क्षायिक समकित होने मात्र से सभी गुण पूर्ण निर्मल नहीं होते, आंशिक ही निर्मल होते हैं, यह सब समझ लेना चाहिए। समझ बिना धर्म नहीं होता। इसीकारण मिश्रधारा कहने में आती है। आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है - ऐसी प्रतीति और अनुभव ही धर्म है। जिससमय आत्मा में ऐसा अनुभव प्रकट होता है, उससमय पूर्ण अनुभव नहीं होता; बल्कि पूर्ण अनुभव तो केवलज्ञान में ही होता है। ___ चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक जितनी शुद्धदशा प्रकट हुई, उतना धर्म है और जितनी विकारीदशा है, उतना अधर्म है। इसप्रकार जहाँ तक पूर्णदशा न हो, वहाँ तक धर्म-अधर्मरूप दोनों भाव रहते हैं। इसे ही जीव की मिश्रदशा कहते हैं। प्रश्न :- क्षायिक सम्यग्दर्शन के काल में श्रद्धा गुण की क्षायिक पर्याय पूर्ण शुद्ध है या नहीं ? यदि वह पूर्ण शुद्ध है तो उसे सिद्ध कहना चाहिए; क्योंकि एक गुण सभी गुणों में व्यापक है, इस अपेक्षा से क्षायिक सम्यक्त्वी के मिश्रपना सिद्ध नहीं होता तथा यदि उसे किंचित् शुद्ध कहें तो सम्यक्त्व गुण का घातक मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन कर्म उसके होना चाहिए; किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कर्म का निमित्त तो होता नहीं, अतः उसका सम्यक्गुण पूर्ण शुद्ध है या अपूर्ण? समाधान :- इसका स्पष्टीकरण यह है कि सम्यक्गुण वहाँ पूर्ण भी है और अपूर्ण भी है - यह विवक्षानुसार समझना पड़ेगा। क्षायिक सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वरूप आवरण तो नहीं है; परन्तु आवरण मात्र के जाने से सभी गुण सर्वथा सम्यक् नहीं होते, इसकारण अभी परम-सम्यक्पना नहीं है। क्षायिक सम्यक्त्व होने पर अन्य गुण तो परम-सम्यक् हैं ही नहीं; किन्तु जो क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट हुआ है, वह भी परम-सम्यक् (परमावगाढ़) नहीं है। यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्वरूप पर्याय में अशुद्धता या अपूर्णता नहीं रही; किन्तु अन्य गुण सर्वथा शुद्ध नहीं होने से क्षायिक को भी परमसम्यक्पना (परमावगाढ़) नहीं कहा जा सकता। जब सभी गुण साक्षात् सर्वथा शुद्ध/सम्यक्प हो जायें, तब परम (परमावगाढ़) सम्यक्त्व ऐसा नाम पाते हैं। इसप्रकार विवक्षा प्रमाण से कथन प्रमाण होता है। ___ क्षायिक सम्यक्त्व के परमसम्यक्त्वपना (परमावगाढ़सम्यक्त्वपना) नहीं होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन में कोई मलिनता, अशुद्धता या कमी है - ऐसा नहीं, बल्कि क्षायिक सम्यग्दर्शन तो अपनी योग्यतानुसार निर्मल ही है तथा कोई ऐसा माने कि आगे के गुणस्थान होने पर वह विशेष निर्मल होता हो तो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि उसमें कोई अशुद्धता शेष ही नहीं है, जो शुद्धता बढ़े; परन्तु अन्य गुण पूर्ण शुद्ध नहीं हुए। इसीकारण वह परम (परमावगाढ़) सम्यक्त्व नाम नहीं पाता - ऐसा कहा है। किसी को सम्यग्दर्शन होने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही केवलज्ञान प्रकट होता है और किसी को सम्यग्दर्शन होने के लाखों-करोड़ों वर्षों तक भी पाँचवें गुणस्थान की दशा तक नहीं आती, क्योंकि क्षायिक 39
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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