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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा मिश्रधर्म अधिकार में मुख्यतः चौथे से बारहवें गुणस्थानवी जीवों की दशा का वर्णन हैं। आत्मा ज्ञान-दर्शन स्वभाव से परिपूर्ण है; उसमें पूर्ण लीनता करके जबतक केवलज्ञान प्रकट न हो, तबतक मिश्रधर्म है। केवलज्ञान में कर्मधारा नहीं है, वहाँ मात्र ज्ञानधारा ही है तथा जो दया-दानादि शुभविकल्पों से धर्म मानता है, शरीरादिक की क्रिया से धर्म मानता है, उस मिथ्यादृष्टि जीव के मात्र कर्मधारा ही वर्तती है; ज्ञानधारा नहीं। 'मैं एक अखण्डानन्द आत्मा हूँ - ऐसी श्रद्धा और स्थिरता जिस जीव ने की है, उसे उतनी ज्ञानधारा है और जितना राग शेष है, उतनी कर्मधारा है।। आत्मा के अवलम्बन से आनन्दधारा होती है; परन्तु साधक जीव को ज्ञानचेतना पूर्ण नहीं हुई है, अतः राग अभी भी शेष है। चौथे, पाँचवें, छठवें आदि गुणस्थानवी जीवों को जितने गुणों के पर्यायों की अपूर्णता है, उतना मिश्रभाव है तथापि मुख्य तो श्रद्धाभाव ही है। ____ मैं शुद्ध चिदानन्दमूर्ति आत्मा हूँ, परद्रव्य के एक रजकण का भी मैं कर्ता-भोक्ता नहीं तथा रागादि का भी मैं कर्ता-भोक्ता नहीं - ऐसी श्रद्धा में ही यथार्थ आनन्द है। इस श्रद्धापूर्वक जबतक केवलज्ञान न हो, तबतक रागादि परिणाम होते हैं; किन्तु ये परिणाम गौण होने से मात्र ज्ञेयरूप वर्तते हैं। उन्हें व्यवहार कहकर ये मेरे स्वरूप में नहीं हैं - ऐसा कहा। श्री नियमसार ग्रंथ की टीका में मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि 'मैं स्वर्ग में रहूँ, चाहे कहीं भी रहूँ; किन्तु हे प्रभु ! आपके चरण-कमल में ही रहूँ।' तात्पर्य यह है कि पुद्गल परावर्तन के नियमानुसार बाह्य में मेरी चाहे जो अवस्था हो, मैं स्वर्ग में रहूँ या अन्य जड़ के किसी भी संयोग में रहँ; परन्तु मेरी भावना और भक्ति यह है कि मैं चिदानन्द आत्मा पर सदैव दृष्टि टिकाये रखू। तथा नरक में रहूँ तो उससमय भी नरक का जो क्षेत्र, भव और मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन अल्पराग वर्तता है, उसकी रुचि न रहकर 'मैं चिदानंदघनस्वभावी आत्मा हूँ - ऐसी श्रद्धा ही कायम रहे। ____ यद्यपि मुनिराज को नरक पर्याय प्राप्त नहीं होती; फिर भी ऐसा कहकर संयोगदृष्टि को उड़ाया है। मैं संयोग में नहीं और संयोग मुझ में नहीं। मैं तो शुद्धस्वभावी आत्मा हूँ - ऐसी प्रतीतिपूर्वक स्वभाव की मुख्यता का ध्येय होने से संयोग और पर्याय में होने वाले रागादिभाव गौण वर्तते हैं, वे आदरणीय नहीं हैं। हे नाथ ! संयोगादि की बात तो दूर ही है; परन्तु जो विकल्प उठते हैं, उन्हें भी मैं गौण समझता हूँ। मुझे उनका आदर नहीं है, एकमात्र स्वभाव का ही आदर है । इसी दशा को साधक की मिश्रदशा कहा हैं। यदि किसी समय श्रद्धा में राग की मुख्यता हो और अखण्ड स्वभाव की मुख्यता न रहे तो जीव के मिश्रधर्म नहीं रहता और वह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है; किन्तु पुरुषार्थ की कमजोरीवश धर्मी जीव को कदाचित् पुण्य-पाप के परिणाम हों तो वे उन्हें मुख्य नहीं करते; अपितु स्वभाव को ही मुख्य करते हैं। 'मैं अखण्ड चैतन्यस्वभावी हूँ' - ऐसी पूर्णदशा पर्याय में प्रकट नहीं हुई हो और अपूर्णदशा वर्त रही हो तो उसे मिश्रभाव कहते हैं। यहाँ आत्मा और कर्म की बात नहीं है; क्योंकि आत्मा और कर्म साथ-साथ होने पर भी उनके मिश्रपना नहीं है। कर्म तो जड़ हैं, पर हैं; उनके साथ आत्मा का मिश्रपना कदापि नहीं हो सकता। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के समस्त जीव अन्तरात्मा हैं। जबतक सर्वज्ञदशा की प्राप्ति नहीं होती, तबतक अखण्डता अर्थात् परमात्मदशा प्रकट नहीं है। इससमय वहाँ अज्ञान नहीं ; किन्तु अपूर्णज्ञान है; अत: बारहवें गुणस्थान में जितना क्षयोपशमरूप अल्पज्ञान है, उतनी कर्मचेतना है और ज्ञानचेतना पूर्ण नहीं हुई; इसलिये मिश्रधारा है। 35
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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