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________________ ६४ ज्ञानधारा-कर्मधारा तथा सिद्ध सकल कर्मरहित निकल परमात्मा हैं। अन्तरात्मा को ज्ञानधारा और कर्मधारा है। कोई प्रश्न करे कि बारहवें गुणस्थान में दो धाराएँ हैं या एक ज्ञानधारा ही है? यदि (एक) ज्ञानधारा ही है तो (उसे) अन्तरात्मा मत कहो और यदि दोनों धाराएँ हैं तो बारहवें गुणस्थान में मोह क्षय हुआ है, राग-द्वेष-मोह सब गए हैं (तो) दूसरी कर्मधारा वहाँ कहाँ रही? समाधान :- ज्ञान परोक्ष है, (क्योंकि) केवलज्ञानावरण है, इसलिए अज्ञानभाव बारहवें गुणस्थान तक है, इससे अन्तरात्मा है; प्रत्यक्षज्ञान बिना वह परमात्मा नहीं है। कषाय गए, किन्तु अज्ञानभाव है, इसलिए वह परमात्मा नहीं हैं, अन्तरात्मा हैं। प्रश्न :- बारहवें (गुणस्थान) में अज्ञान क्या है? उसका समाधान :- केवलज्ञान के बिना सकल पर्यायें नहीं भासतीं, यही अज्ञान है। निज प्रत्यक्ष के बिना भी अज्ञान है, इसलिए "अज्ञान' संज्ञा हई, इसप्रकार यह मिश्र अधिकार (कहा)। . आ. सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचन (पण्डित दीपचंदजी कासलीवाल रचित मिश्रधर्म अधिकार पर) प्रश्न :- सम्यग्दर्शन होने पर तत्काल ही सम्पूर्ण रागादि रहित दशा प्रगट होती है या कुछ अंश में रागादि शेष रहते हैं ? समाधान :- अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान से क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक समस्त जीवों के साधकदशा में ज्ञानधारा और कर्मधारा - ये दो धारायें प्रवर्तती हैं। बारहवें गुणस्थान में रागादि विद्यमान नहीं हैं, तथापि क्षयोपशमरूप अल्पज्ञान विद्यमान होने से वहाँ उतने अंश में कर्मधारा है। आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र का जितने अंश में सम्यक्प परिणमन हुआ, उतने अंश में उस जीव के ज्ञानधारा है और जितने अंश में रागादि विद्यमान हैं, उतने अंश में कर्मधारा है। यद्यपि शक्ति-अपेक्षा समस्त संसारी जीव परमात्मा ही हैं; तथापि अवस्था विशेष की अपेक्षा उन्हें तीन भागों में बाँटा गया है - १) बहिरात्मा २) अन्तरात्मा ३) परमात्मा। १) जो आत्मा स्वयं का अनुभव न करके बाह्य परपदार्थों में अटकता है अथवा मन-वचन-काय के निमित्त से प्राप्त संयोग और रागादि भावों इत्यादि में ही अपनापन करता है, वह जीव बहिरात्मा है। ऐसे मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व नामक प्रारंभ के तीन गुणस्थानवी जीवों के बहिरात्मपना है। २) जो जीव भेद-विज्ञान के बल से अपने आत्मा को परपदार्थ तथा देहादि और रागादि से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी जानता है, मानता आत्महित के लिए जागृत होओ भाई ! जीवन का यह समय तुम गेंद उछालने में (क्रिकेट आदि में) गँवाते हो अथवा धन कमाने में गंवाते हो, परन्तु तुम्हारे जीवन की गेंद उछल रही है और आत्मा की कमाई का अवसर बीता जा रहा है। उसका तो कुछ ख्याल करो। ऐसा अवसर धर्म के बिना खोना नहीं चाहिए। मनुष्यभव अनन्त बार मिल चुका, परन्तु आत्मज्ञान के बिना जीव ने उसको व्यर्थ गँवा दिया। जवानी का काल विषय-वासना या धनादि के मोह में ऐसा खो दिया कि आत्मा की बात सूझी ही नहीं। इसप्रकार जीवन का कीमती समय पाप में गँवा दिया। यद्यपि आत्मा का हित करना चाहे तो जवानी में भी कर सकता है; किन्तु जो आत्मा की दरकार नहीं करते, उनको कहते हैं कि भाई ! अनन्त बार तुमने आत्मा की दरकार के बिना जवानी पाप में ही गँवा दी, अत: इस अवसर में आत्महित के लिए अवश्य जागृत होओ। - आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी 33
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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