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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा समकिती के तो तदनुरूप वीतरागता है; किन्तु भावलिंगी मुनि को तीन कषाय चौकड़ी के अभावस्वरूप वीतरागता प्रकट हुई है। उस वीतराग स्वरूप में वे निरन्तर रमण करते हैं; तथापि उनका लक्ष्य भी पूर्ण वीतरागता की प्राप्ति करना ही है। अहाहा ! संसार का राग तो समकिती को काला नाग दिखाई देता है। वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा हमें पुकार कर कहते हैं कि जबतक राग की क्रिया से पूर्ण निवृत्ति न हो, तबतक बंध है और जबतक बंध हैं, तबतक संसार में भव धारण करना ही पड़ेगा। श्रीमद् राजचन्द्रजी कहते है - अशेष कर्म का भोग है, भोगन का अवशेष रे। वहाँ देह एक धरकर, जाना स्वरूप स्वदेश रे।। अरे भाई ! राग अभी भी बाकी है। “अशेष कर्म का भोग" अर्थात् राग जो अभी बाकी है, उसका भोग अंदर में दिखाई देता है। ज्ञानी के बाह्य में जो राग दिखाई देता है, वह एक भव कराता है और एक भव पश्चात् वे जीव अपने स्वरूप में चले जाते हैं। इसकारण उस जीव को राग की देशना नहीं है। कहा भी है - हम परदेशी पंछी साधु, इस देश के नहीं रे। निज स्वरूप का स्मरण करके, जाये स्वरूप स्वदेश बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन पड़ेगा। देह धारण करनी पड़ेगी। मनुष्य और स्वर्गादि में जाना तो धर्मशाला में जाने के समान है, जहाँ जाते हैं और फिर पुनः वहाँ से निकाल दिये जाते हैं, अत: अब शीघ्र ही भव का अभाव करना है; क्योंकि राग के कारण ही यह भव बारम्बार धारण करना पड़ता है। वीतरागी सर्वज्ञ अरहंत परमात्मा कहते हैं कि जब तक जीव को अशुभ परिणमन है, फिर चाहे वह मुनि हो अथवा सम्यग्दृष्टि हो, उसके विकारी परिणाम विद्यमान है। श्री अमृतचन्द्राचार्य श्लोक में कहते हैं कि अनादि से हमें अशुद्धता (कल्माषितायाः) हैं। भावलिंगी, तीन कषाय चौकड़ी से रहित, वीतराग झूले में झूलनेवाले संत - ऐसा कहते हैं कि अनादि की कलुषतास्वरूप राग हमें अभी भी विद्यमान है। यद्यपि वह शुभ राग है, किन्तु राग होने से बंध का ही तो कारण है। राग का एक अंश भी बाकी रहे तो संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा, अतः ज्ञानी जीव विभावरूप समस्त परिणमन को मिथ्यात्व के समान जानकर यह भावना भाते है कि अपने आत्मनाथ को छोड़कर हम अन्यत्र कहीं जाए ही नहीं। __ ज्ञानी को हुआ विभावरूप परिणाम किसी कर्म के कारण नहीं है, अपितु अन्तरंग निमित्तरूप जीव की विभावरूप शक्ति के कारण है। जीव में राग अथवा विभावरूप परिणाम होते हैं, वह विभाव परिणमन शक्ति का कार्य है, जो जीव की स्वयं की है। आत्मा के ज्ञानादि अनन्त शक्तियों में एक वैभाविक शक्ति भी है। यह वैभाविक शक्ति जीव-पुद्गल को छोड़कर अन्य चार द्रव्यों में नहीं है, अत: वैभाविकशक्ति को विशेषशक्ति कहा गया है। यह विभावशक्ति जीव की विभावरूप परिणमन शक्ति है। इसी शक्तिविशेष के कारण अपनी पर्याय में विभावरूप होने की योग्यता है अर्थात् वैभाविक शक्ति यहाँ यह कहना चाहते हैं कि अभी हम राग के क्षेत्र में हैं अर्थात् कर्मों से पूर्ण निवृत्त नहीं हुये हैं; परन्तु निश्चित ही इस राग का त्याग करके एक भव पश्चात् मोक्ष की प्राप्ति अवश्य करेंगे; क्योंकि हमारा स्वदेश तो अपना निज आत्मा है। जिन्होंने भव का छेद करने का निश्चय कर लिया है अथवा छेद कर दिया है, उन ज्ञानी धर्मात्माओं को जरा-से रागभाव में भी अपना भव नजर आता है। उससमय ज्ञानी विचार करते हैं कि अरे रे ! अभी और भव करना 22
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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